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संस्मरण: ....और मैं बदल गई।

२०१६ फरवरी माह में मैंने मौत को बहुत करीब से देखा। एक दिन स्कूल की छुट्टी के बाद मैं अपने बेटे को स्कूटी से घर ला रही थी। उस समय शाम के चार बज रहे होंगे। गाजियाबाद के NH ५८ हाइवे पर काफी ट्रेफिक था। आगे निकलने की होड़ में एक मिनी ट्रक हमारी स्कूटी से आ टकराया। और हम दोनों मां- बेटे सड़क के किनारे जाकर गिरे। ,,,,होश संभालते ही सबसे पहले मैंने अपने बेटे को सिर से लेकर पैर तक अलट- पलट देखा। हम दोनों ने हैल्मेट पहने हुए थे। शायद इसीलिए हमें बस हल्की- फुल्की खरोचें ही आई। और हम दोनों सही- सलामत बच गए। मैंने भगवान का शुक्रिया अदा किया और नज़र उठाकर देखा, वहां पर काफी भीड़ एकत्रित हुई थी। और सभी के जुबान पर बस एक ही बात थी, कि किसी पुण्य कर्म के प्रताप से ही आज तुम दोनों बच गए हो।,,,, तभी मेरी नज़र स्कूटी पर पड़ी, स्कूटी की हालात भी खराब हो चुकी थी। किसी भले मानस ने जैसे- तैसे करके स्कूटी स्टार्ट की। हम दोनों उठे, स्कूटी पकड़ी और डाक्टर के क्लीनिक की ओर चल दिए।,,,,
घर आने के बाद भी काफी समय तक हम सामान्य नहीं हो पाए। मैं अंदर तक हिल चुकी थी, और मेरा बच्चा भी काफी सहम गया था। मेरे मन में एक ही विचार आ रहा था। कि जब भी मौत को आना होता है तो वह उम्र नहीं देखती, वह कभी भी,,, कहीं पर,,,,किसी भी रूप में आ सकती है। उस हादसे ने जीवन के प्रति मेरे दृष्टिकोण को बदलकर ही रख दिया।,,, 
तब पहली बार मैंने महसूस किया कि हमारी जिंदगी कितनी अनमोल है। और हम अपनी इस जिंदगी को सिर्फ चारदीवारी तक सीमित करके, मौज-मस्ती या अन्य व्यर्थ की बातों में यूं ही गंवा देते हैं।,,,  
मैं रात भर इसी उधेड़बुन में रही;,,, हे भगवान! आज हम बीच सड़क में गिर गए होते तो!... इस हादसे में मेरे बच्चे को कुछ हो जाता तो!.. या इस हादसे में मेरी ही जान चली गई होती तो!.. कौन याद करता मुझे?.. मेरे परिवार वाले!... कुछ मित्र?... या कुछ रिश्तेदार?... और कब तक?.... क्या मैं अन्य लोगों की यादों में जिंदा रहती?... मैंने अपने जीवन में ऐसा काम ही क्या किया है?... जिसकी वजह से लोग मुझे याद रखते!... इन्हीं बातों ने मुझे अंदर तक झिंझोड़ कर रख दिया।,,,
मैं कई दिन तक इन्हीं सोच-विचारों में उलझी रही। काफी सोचने- विचारने बाद मैंने निर्णय लिया "कि अब आगे की जिंदगी को मैं यूं ही बर्बाद नहीं करूंगी। छोटा ही सही मैं भी अपने जीवन में एक नेक काम अवश्य करूंगी"।,,,,
मेरे लिए सबसे बड़ा सवाल था, कि अपनी आगे की शुरूआत मैं कहां से करूं?... एक मध्यमवर्गीय परिवार की महिला होने के कारण, मैं ऐसा क्या काम करूं, जो मुझे सुकून भी दे, और जिसे मैं सरलता से कर भी सकूं।,,, बहुत सोचने- विचारने पर भी मुझे कोई राह नहीं मिल रही थी। तब मुझे महसूस हुआ।,,,,इस तरह तो मैं कुछ भी नहीं कर पाउंगी। कुछ भी नया शुरू करने से पहले मुझे स्वयं ( अपनी सोच, स्वभाव, व्यवहार) को बदलना होगा। तभी मैं कुछ कर पाउंगी और आगे बढ़ पाउंगी।,,,
सर्वप्रथम मैंने अपने अंदर "स्वयं" को ढूंढना शुरू किया। इस दौड़ती- भागती जिंदगी में सबसे मुश्किल काम है, अपने अंदर "स्वयं" को ढूंढना।,,,,हर संभव प्रयास करके जब मैंने "स्वयं" को थोड़ा बहुत जाना,,,, तब मैंने पाया कि मुझमें कुछ खूबियां तो हैं, पर साथ ही बहुत कमियां भी हैं।,,,, मैंने खुद में सबसे बड़ी कमी यह देखी, कि घर- गृहस्थी की व्यस्तता, जीवन के उतार- चढ़ाव और संघर्षों ने मुझे चिढ़- चिढ़ और कुढ़- कुढ़ बना दिया है।,,,, सबसे पहले तो मुझे अपनी इसी कमी को दूर करना होगा।,,,, "जब मैं खुद तन-मन से स्वस्थ और खुश रहुंगी तभी तो मैं दूसरों को खुशी और सुख दे पाऊंगी"।,,,,,
सच में "कितना आसान काम है ना,,, दूसरों में कमियां निकालना। लेकिन खुद में कमियां निकालना उतना ही मुश्किल काम है! और उन कमियों को स्वीकार करना तो, और भी मुश्किल काम है।,,,, मैंने इस मुश्किल काम को किया। और फिर मैंने पूरे शिद्दत से "स्वयं" को तराशना शुरू कर दिया"।,,,,,,
खुद में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए मैंने और भी कई प्रयास किए। और अंत में मैंने "ध्यान" का मार्ग चुना। शुरूआत में मुझे "ध्यान" करना बहुत ही मुश्किल काम लग रहा था। लेकिन लगभग ५- ६ महिने के बाद मुझे महसूस हुआ कि मैं अंदर से मजबूत हो रही हूं। मेरे मन में जो उथल-पुथल रहती थी वह कम हो रही है।,,,,
तत्पश्चात मैंने सर्वप्रथम जनवरी २०१७ "आंचल की छांव" की नींव डाली। अर्थात (अपनी मातृछाया में गरीब बच्चों को शिक्षित करने और उन्हें सिलाई- कढ़ाई सिखाकर आत्मनिर्भर बनाने का बीड़ा उठाया।) अपने बजट को ध्यान में रखते हुए मैंने दो गरीब बच्चियों (एक हिंदू एक मुस्लिम) की पढ़ाई-लिखाई की जिम्मेदारी ली।,,,, दो बच्चियों से मैंने यह सफर शुरू किया। और फिर मेरे इस मुहिम में धीरे- धीरे मेरी सखियां भी जुड़ती चली गई। और आज शिक्षा के क्षेत्र में हम ३५० से ज्यादा बच्चों की मदद कर रहे हैं। और साथ ही गरीब लड़कियों को मैं निःशुल्क सिलाई-कढ़ाई और फैशन डिजाइनिंग का कोर्स सिखाती हूं। ताकि वो अपने पैरों पर खड़ी हो सके।,,,,
मैं समाजसेवा के इन अनुभवों को डायरी में लिखने लगी।
२०२० देश में अचानक आई भारी विपदा कोरोना महामारी में भी मैंने संकल्प लिया; कि मैं हर सम्भव कोशिश करूंगी, कम से कम ६- ७ जरूरतमंद गरीब को मैं नियमित रूप से भोजन करा सकूं। लाकडाउन लगते ही हम लोग नियमित रूप से गरीब और शहर से गांव की ओर पलायन कर रहे लोगों के लिए खाना बनाकर भेजने लगे। इस मुहिम में तो कई लोग जुड़े हुए थे। मैं भी उसी मुहिम से जाकर जुड़ गई,,, 
कोरोना के केस बढ़ने से डेढ़ महीने बाद हमारी सोसायटी सील हो गई। लेकिन मेरे इरादे नहीं बदले, उसके बाद भी मैं अपनी सखियों के साथ मिलकर जरूरत मंद परिवार तक राशन पहुंचाने की कोशिश करती रही।,,,,,
कोरोना महामारी में लोगों से मिलना- जुलना बिल्कुल ही बंद हो गया था। मैंने पहली नवरात्रि से मास्क बनाना शुरू किया, और खूब मास्क बनाए। और फिर उन्हें सफाई कर्मचारियों और गार्डो के द्वारा बंटवा देती थी। शुरू में लाकडाउन के १५ दिन तो जैसे- तैसे कट गए, लेकिन लाकडाउन फिर १५ दिन आगे बढ़ गया।,,,,अप्रैल- मई के वो बड़े- बड़े दिन.... जो काटे नहीं कट रहे थे।,,, 
तब मैंने सोचा,,,,यार बचपन में लिखने का बड़ा शौक था मुझे।,,, पर! घर गृहस्थी को संवारने में अपने इस हुनर को मैं भूल ही गई हूं। क्यों ना, इस लाकडाउन में अपना यह शौक पूरा किया जाये। और मैंने लिखना शुरू कर दिया।..... लिखना शुरू तो कर दिया!,,,, पर !,,,मुश्किल यह थी पढ़ाई- लिखाई को छूटे हुए पूरे २० साल हो गए थे। और शब्दकोश को मैं पूरी तरह भूल चुकी थी। कभी- कभी लिखती थी। लेकिन बेतुका सा, यूं भी कह सकते हैं बिना सिर- पैर का।,,,,
इसी बीच मैं मातृभाषा काम. से जुड़ी। उन्होंने ग्रुप को हर विधा में लिखना सिखाया। मेरे लिए तो सबकुछ नया सा था। इस ग्रुप में मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला,,,,, और फिर मेरी कलम चल पड़ी।,,,,, इसी दौरान मैं कई पत्र-पत्रिकाओं से जुड़ गई।,,, और यहां से मेरी ज़िंदगी का एक नया हसीन सफ़र शुरू हो गया।,,,,    
"मैंने इन 5- 6 सालों में अपने जीवन का रुख पूर्णतया सकारात्मक कर्म की ओर मोड़ दिया मैंने अपने जीवन में छोटे- छोटे लक्ष्य बना दिए। जैसे मेरा पहला लक्ष्य गरीब और जरूरतमंद बच्चों को शिक्षित करना और उन्हें आत्मनिर्भर बनाना है।,,, 
दूसरा लक्ष्य कपड़े इक्कट्ठे करके उन्हें जरुरतमंदों में बांट देना है।,,,,
तीसरा लक्ष्य किसी भी गरीब बच्ची की शादी में अपनी सखियों के साथ मिलकर उन्हें निस्वार्थ सहयोग देना है।,,,,
और चौथा लक्ष्य कुष्ठरोगियों की मदद करना है।,,,,
यह सभी काम मैं तभी कर पाई जब मेरी सखियों से मुझे भरपूर सहयोग और सानिध्य मिला।
अपनी इन्हीं छोटी- छोटी कोशिशों से आज मैंने कई बच्चों, जरूरतमंदों, और अनजान लोगों के दिलों में अपनी एक छोटी सी, प्यारी सी जगह बनाई है"।,,,, "जो मेरे लिए बेहद अनमोल और कीमती है"।,,,,,,
बहुत सुकून मिलता है, मुझे अपने इन छोटे- छोटे कामों से। ऐसे ही छोटे- छोटे कामों से मैंने अपने ही जीवन में और भी कई सकारात्मक बदलाव किए हैं।,,,,,, और आज समाज में भी मैं अपनी एक छोटी सी सार्थक भूमिका निभा रही हूं।

स्वरचित: मंजू  बोहरा बिष्ट,
गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश।
मूल निवासी- हल्द्वानी, नैनीताल, 
उत्तराखंड।

दोहे: जीवन के आधार


1- डमी खड़ा दुकान में, पहने अकरा सूट।

 नज़र पड़े ज्यों सेल में, दुनिया पड़ती टूट।।


स्वरचित मंजू बिष्ट,

गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश।



गोदान उपन्यास का कुमाऊनी रूपांतरण

'गोदान' उपन्यास प्रेमचंद ज्यू की सबूं है भल रचना छौ। यौ उपन्यास मा प्रेमचंद ज्यू'ल गौ और शहर'क रौण- बसण कै एक साथ मिलैबेर भलि भली कै लिख रखौ। गोदान उपन्यास हमर देश'क आजाद हुण टैम'क कहानी छू। 'गोदान' उपन्यास हमर देश'क किसान कि आत्मकथा छू। गोदान मा होरी नाम'क एक किसान' के कहानी छू, जौ जीवनभर खूब मेहनत करौ, कष्ट सहौ, पर वीकै कभै लै मेहनत'क फल न्हैं मिलण।

(भाग१)

होरी'ल द्वीनों बल्दों कै सन्नी- पाणी द्यी बेर आपणी सैणी थै कुणों- गोबर कै गन्न गोड़न भेज द्ये। मैं पत्त न्हैं कब तक लौटुल। जरा म्येरी लठ्ठी द्यी द्यै।

धनिया'क द्वीनों हाथ मोव'ल सनी रौछी। उ मोव'क कंड थापबेर औनेछी। उ कौणी- सुणौ, थ्वाड़ चहा- पाणी' तो पी ल्यौ, यैसि लै जल्दी कै है रै?

 होरी ल आपणी चिम्वाड़ पड़ी कपाव मा गांठ मार बेर कुणौ- तुकै चहा पाणी है रै, मैं कै यौ फिकर लागि रै यदि अबेर है जालि त मालिक दगड़ भेंट न्हैं होलि। उं नाण- ध्वैन और पुज करण लागला' त घंटों बैठियै बीत जाल।

"तबै त कुण लागि रियूं थ्वाड़ चहा- पाणी पी जाऔ। और आज न्हैं जाला'त कौन सा हर्ज है जाल। पोरदिन त जाई रैछा।"

"तू जो बात कै न्हैं समझनी, उ में टांग किलै अणौछी भई! म्येरी लठ्ठी द्यी द्यै और आपुण काम द्यैख। यौ इसियै मिलण- जुलण'क परसाद छू कि आजि तक जान बची रै, न्हैं  कैं पत्त न्हीं लागण कां हुणी ग्यां। गौं मा इतुक मंख्यी छैं, कैक पै बैदखली न्हैं ऐ, कैक पै कुड़की न्हैं ऐ। जब दुसरां क खुटां क तली आपणी गर्दन दबी छू, त उन खुटां कै मुसारन मा भलाइ छू।"

धनिया क व्यवहार खट-खट छी। उ क विचार छी हमौ ल जमींदार क खेत जोति रखी, त ऊ आपुण लगान त ल्यौ लै। वीक खुशामद किलै करूं, वीक तलू किलै मुसारूं। उसिक आपुण ब्या क बाद यूं बीस बर्षों में उकै भलि कै पत्त लागि गौछी कि चाहे कतुकै आपुण खर्चों में कमी कर ल्यौं, चाहे कतुकै कम खौं, कतुकै फाटि पुराण पैरौं, कतुकै कंजूसी कर ल्यौं; पर यौ लगान बै मुक्ति मिलण मुश्किल छौ। फिर लै ऊं हार न्हैं माणेछी, यौ बात पर सेणी- मैंस म आये दिन ठसका-ठुसकी है जांछी।

उनर छः नाणों बै अब तीन नाण ज्यूंन छी, एक च्यल गोबर कोई सोला साल ल और द्वी चेली सोना और रूपा, बार और आठ साल की। तीन च्याल नाण छना मरग्यान। वीक मन आज लै कौछी अगर उनेरी दवा- पाणी हुणी त उं बच जांछी; पर उ एक रुपैं क लै दवै न्हैं मगें सकि।

वीक उमर आजि कै छू। छत्तीसों त लागि रौ; पर सबै बाऊ स्यात हैगीं, मुखड़ी में चिम्वाड़ पड़ गी, पुरै शरीर बुड़ जस ह्वेगौ। वीक सुंदर गेरू रंग काउ है गौ, आंखों ल लै अब कम दिखीणौं। यौ पेट क फिकर ल कभै जीवन क सुख न्हैं मिलि। नानि उमर क अमिट बुढ़ापा देखि बेर वीक आत्मसम्मान लै उदेखी गैछी। जो घर-बार मा पेट क ल्ही रवाट लै न्हीं मिलण, वीक ल्ही इतुक खुशामद किलै? यौ हालात में वीक मन हर दफै बगावत करै छी। और द्वी-चार डांट डपट सुण बेर वीक अकल सही है जैछी।

वील हार बेर होरी क लठ्ठी, पंखी, ज्वात, पगड़ी और तम्बाकू क बटू लै बेर सामणी मा पटक द्यी।

 होरी वीक तरफ आंखों कै नचै बेर कुणौ- सौरास जांण छू कै, जो पांचों ....लै रैछै?  सौरास मा लै कोई ज्वान साई- साऊ त बैठि न्हैं, जिनकै जै बेर द्यैखौं।

होरी क कावौ- काव, दुबल-पतल मुखड़ी मा मुल-मुली हंसी खिल गै।








जरा हौले से चल री बयरिया: गीत

 जरा हौले से चल री बयरिया;

आ जा तुझको बताऊं एक राज वे!

आने वाले हैं मोरे सांवरिया;२
कैसे थामू जिया के तार वे!!....
तू जाने है मन की बाती;
कटती कैसे मेरे दिन राती।
बैरन जुदाई सताए मुझे;
नैनों से अश्रु की धारा बहे।।
आने वाले हैं मोरे सांवरिया;२
कैैसे थामूूं। जिया केे तार वे,,,,।।  
जरा हौले से....
ओ री सखी आ जा तुझको बताऊं,
मनवां कहे झूमूं, नाचूं, गाऊं।
करने लगी सोलह श्रृंगार मैं;
दर्पण में आज खुद को निहारूंं।।
रूप मेरा ऐसा खिला है; 
बगिया में कोई फूल सा खिला है।
आने वाले हैं मोरे सांवरिया,२
कैैसे थामू जिया के तार वे,,,,,,,,।।
जरा हौले से.....

स्वरचित: मंजू बोहरा बिष्ट;
गाजियाबाद; उत्तरप्रदेश।

आशा: कहानी

कोरोना के केस दिन पर दिन बढ़ते जा रहे थे। कोरोना को रोकने का एकमात्र उपाय था लाकडाउन। आज अचानक सायंकाल में प्रधानमंत्री मोदी जी ने टीवी पर लाइव आकर घोषणा कर दी, कि २४ मार्च से १४ अप्रेल तक देश में लाकडाउन रहेगा। यह सुनकर आशा बहुत ही ज्यादा विचलित हो गई, अपनी पड़ोसन किरण के लिए उसकी फिक्र और बढ गई। वह आसमान की ओर देखकर कहने लगी! "हे भगवान! आप किरण को यह कैसी दोहरी मार से मार रहे हैं, अभी तो महिना भर भी नहीं हुआ है उसके पति की तेरहवीं को। ऊपर से यह लाकडाउन लग गया है। आशा मन ही मन में बुदबुदाने लगी, उस दिन गाड़ियों के आपस में टकराने से कई घर उजड़ गए। मोहन ड्यूटी से रोज शाम को घर आता था।,,, पर! पता नहीं उस दिन क्यों छुट्टी लेकर दिन में ही घर आ गया!,,, मैंने कई बार सुना था कि, "मौत कभी अपने ऊपर इल्जाम नहीं लेती।" सही सुना था। मौत ने ही बुला रखा होगा। शाम को आता तो शायद बच जाता।,,,, जो कमाने वाला था वही उन्हें छोड़कर चला गया है। दो छोटी सी मासूम बेटियां हैं उसकी। कैसे संभालेगी वो खुद को और अपने बेटियों को। उसके ऊपर तो आसमान ही गिर गया है।,,,, इतनी छोटी उम्र में पति साथ छोड़कर चला गया। अब कैसे काटेगी आगे की पहाड़ सी जिंदगी को! क्या खायेंगी? और क्या खिलायेगी बच्चों को? लाकडाउन की खबर सुनकर तो वह पूरी तरह से टूट गई होगी!,,,, बहुत देर तक सोचने के बाद आशा ने निर्णय लिया कि वह हर हाल में किरण की मदद करेगी। और वह उसे कभी भी अकेला नहीं छोड़ेगी।

अपने मन की बेचैनी को शांत करने के लिए वह खेतों की ओर चल दी। और अपने मवेशियों के लिए घास काटने लगी, और घर आकर उसने दूसरे दिन का भी सारा काम निपटा डाला। रात्रि में भोजन करने के उपरांत उसने अपने पति के सामने किरण की बात छेड़ दी। आशा के पति का हृदय भी करुणा से परिपूर्ण था। आशा के मन की बात जानकर वो बोले! तूने तो मेरे मन की बात कह दी, मैं भी कई दिनों से यही बात सोच रहा था, कि अब किरण कैसे अपने घर को संभालेगी?,,, तू एक काम कर, राशन की एक पर्चा बना ले। कल मेरी तो ड्यूटी है, पर तू बाजार जाना और हम दोनों परिवार के लिए महीने- महीने भर का राशन खरीद लाना। पता नहीं यह लाकडाउन कब तक रहेगा।,,,, अपने पति की बात सुनकर आशा ने राहत की सांस ली। और फिर दूसरे दिन घर काम- धाम निपटा कर आशा बाजार चल दी।,,,, 

आज बाजार में बहुत ही ज्यादा भीड़ हो रही थी। घंटों खड़े रहकर जैसे- तैसे आशा ने बनिए की दुकान से राशन खरीदा। फिर उसने कपड़े वाले की दुकान से ५० मीटर कपड़ा ख़रीदा। सब्जी मंडी तो भीड़ से खचा-खच भरा हुआ था। आशा ने भी बड़ी मुश्किल से २० धड़ी आलू और अन्य साग- सब्जी की खरीदारी की। और अंत में सभी सामान को टेंपो में डालकर घर की ओर चल दी। घर जाते- जाते आशा को रात हो चुकी थी। थोड़ा सामान आशा ने अपने घर उतारा और फिर टेंपो को लेकर किरण के घर की ओर चल दी। टेंपो की आवाज सुनकर किरण की दोनों बेटियां बाहर आंगन में आ गई। आशा और उन दोनों लड़कियों ने मिलकर सारा सामान घर के अंदर एक कोने में जाकर रख दिया।...

उसी कमरे के एक कोने में किरण उदास- निराश पता नहीं किस गहरे सोच- विचारों में डूबी हुई बैठी थी। अंदर कौन आ- जा रहा है उसे इतना भी भान नहीं था। आशा के टोकने पर किरण जैसे सपने से जागी। और अचानक आशा को देखकर बोली! "अरे! दीदी आप! कब आईं? बैठो! "और जैसे ही उसकी नजर सामान से भरे हुए थैलों में पड़ी तो उसने पूछा, " दीदी इतना सारा सामान लेकर इतनी रात में कहां से आ रही हो? और कहां जा रही हो?",,,,

 "तुमने आज का सामाचार सुन ही लिया होगा"।

"हां दीदी" और इतना कहते ही किरण की आंखों से अविरल अश्रु धारा बहने लगी। साड़ी के पल्लू से अपने आंसू को पोंछते हुए कहने लगी, पता नहीं दीदी मुझे कौन से जन्मों के कर्मों के सजा मिल रही है।",,,, 

आशा ने किरण के सिर पर अपना स्नेहिल हाथ फेरा और बोली, "किरण इस समय तेरे मन में क्या चल रहा है, मैं समझ सकती हूं। और मैं तुम्हारी आर्थिक स्थिति से भी भलि- भांति परिचित हूं। लाकडाउन की खबर सुनकर मैं कल से तुम्हारे बारे में ही सोच रही थी। आज मैं राशन लेने बाजार जा रही थी, सोचा क्यों ना तुम्हारे लिए भी राशन खरीद लूं। इन थैलियों में राशन है।,,,, किरण को अपनी आंखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। वो कभी राशन को तो कभी आशा के चेहरे को देख रही थी। आशा किरण के मन की उथल-पुथल को समझ गई थी। आशा कहने लगी, "किरण मैं हमेशा तेरे साथ खड़ी हूं। तू हिम्मत मत हार।,,,, मोहन इस दुनिया को छोड़ कर चला गया है। तू कितना ही अपना सिर पटक ले, वो कभी लौटकर नहीं आयेगा।,,, अब तू इस सच्चाई को स्वीकार कर ले और अपने जीवन में आगे बढ़ने की कोशिश कर।,,, और अपने परिवार का भरण-पोषण करने की सोच।,,,, यह सब तू तभी कर पायेगी, जब तू सच्चाई को स्वीकार करेगी। और आगे खुद को सशक्त और मजबूत बनायेगी।"

किरण एक बात बता! तेरी सासू मां ने बताया था मेरी बहू ने सिलाई- कढ़ाई सीख रखी है। "क्या तुझे सिलाई कढ़ाई आती है?",,,,

"दीदी शादी से पहले सीखी तो थी। पर! अब सब भूल गई हूं।"

"कोई बात नहीं,,, परसों से लाकडाउन लग रहा है आने- जाने वाले लोग कम हो जायेंगे। मैं ये कपड़ा लाईं हूं। तू दोबारा मेहनत कर, और खूब मेहनत कर। जो सिलाई का हुनर तेरे पास है,,,,उस हुनर को दोबारा निखार।, तुम्हारे पास खेत-खलिहान तो हैं नहीं। लेकिन सिलाई करके तू एक आत्मनिर्भर औरत बन सकती है। और दोनों बेटियों को पढ़ा- लिखा सकती है।,,,, तुझे पता है ना आस-पास कोई भी कपड़े सिलने वाला नहीं है सभी गांव वाले कपड़े सिलवाने बाजार जाते हैं। यह काम तेरे लिए अच्छा है‌,,, मैं भी तेरी मदद करुंगी।,,,, मैं गांव- गांव, घर- घर जाकर तेरी सिलाई का प्रचार करुंगी। बस तू मन लगाकर कर काम शुरू कर दें।",,,,,

मुसीबत की इस घड़ी में आशा के सहारे और उसकी बातों ने किरण को बहुत हिम्मत दी। अपने प्रति आशा के मन में इतनी ज्यादा फ़िक्र और ममता देखकर किरण आशा के गले से लिपट गई, और फूट-फूटकर रोने लगी। और रोते हुए कहने लगी। "दीदी! इस समय तुम साक्षात देवी के रूप में मेरे घर आई हो। मैं तो इस फ़िक्र में घुली जा रही थी कि मैं अब आगे क्या करूं, कैसे अपनी बेटियों का लालन-पालन करूं। दीदी आपने मुझे सहारा देने के साथ- साथ जिंदगी में आगे बढ़ने का रास्ता भी दिखा दिया है। मैं आपके इस एहसान को"....... आशा ने किरण के मुंह पर अपनी अंगुली रख दी और बोली "नहीं,,, अपनी जुबान पर कभी इस बात को मत लाना। तू मुझे अपनी जेठानी मानकर दीदी कहती है ना,,, बस, आज से तू सिर्फ मुझे दीदी कहना। दीदी अपनी बहिन पर कभी एहसान नहीं करती।,,,, समझ गई। एक समय था तेरी सासू मां ने भी हमारी बहुत मदद की थी। जिंदगी में उतार- चढ़ाव सभी के जीवन में आते हैं। आज तेरी बारी, तो कल मेरी बारी; एक दिन इसकी बारी, तो एक दिन उसकी बारी। यही जीवन है।"

"तू बस मेरी एक छोटी सी बात मान लेना, अब अपनी आंखों में आंसू मत आने देना। मां- बाप दोनों बनकर तूने ही अपनी बेटियों की हर जरूरत को पूरा करना है। इसीलिए अब तेरा अपने पैरों पर खड़ा होना बहुत जरूरी है।,,,, तभी तो तू अपने सभी फर्ज पूरे कर पाएगी। और अपनी बच्चियों की जिंदगी में एक नई किरण बन पायेगी।,,,, समझ गई।,,,,मानेगी ना मेरी बात।",,,,,,

"जी",,,किरण ने धीरे से सिर हिलाकर हामी भर दी।,,,, आशा की बातों से किरण को बहुत भरोसा और सहारा मिला। और अब किरण के आंसू थम चुके थे। थोड़ी देर इधर- उधर की बातें करने के बाद आशा ने किरण के चेहरे की ओर नजर मारी। किरण के चेहरे से चिंता की लकीरें कुछ कम हो गई थी। उसने किरण से कहा, रात बहुत हो चुकी है अब मैं भी घर जाती हूं। तू भी खाना बना ले और समय पर खा लेना। और फिर आशा अपने घर को ओर चल दी। किरण आंगन में खड़ी होकर आशा को जाते हुए तब तक देखती रही। जब तक वो बिजली की उजास में दिखाई दे रही थी। अपने पति और सासू मां से उसने आशा के बारे में सुना था। पर आज सचमुच ही उसने साक्षात देवी के दर्शन किए।,,,,

और फिर किरण धीरे- धीरे क़दम बढ़ा कर अपने घर के अंदर आ गई। उसने किवाड़ में चिटकनी चढ़ाई और अपनी दोनों बेटियों को अपनी कोहली में भर लिया।,,,

घर पहुंचकर आशा ने मास्क उतारा, और नहाने चली गई। नहा-धोकर उसने गरमागरम चाय बनाई और फिर चाय का गिलास लेकर चारपाई पर आकर बैठ गई। किरण के लिए उसके मन-मस्तिष्क में जो फ़िक्र थी वो अब थोड़ा कम हो गई थी।,,,,, पर देश में कोरोना के बढ़ते केस देखकर उसके शान्त चेहरे पर फिर से चिंता की लकीर दिखने लगी।


स्वरचित: मंजू बोहरा बिष्ट,

गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश।

मूल निवासी- हल्द्वानी, नैनीताल,

उत्तराखंड।

सर्वाधिकार सुरक्षित।

प्रकाशित

संघर्ष: कहानी

आज भी सीमा और राजेश के बीच में बहस छिड़ गई। सीमा गुस्से से तमतमाते हुए बोली, " मैंने तुमसे कितनी बार कहा है, तनख्वाह मिलते ही कुछ रुपए मुझे दे दिया करो। पर तुम्हारे हाथ से एक कौड़ी नहीं निकलती। मैं अपने क्रीम- पाउडर के लिए रूपए नहीं मांग रही। पिछले तीन महीने से बच्चों की फीस जमा नहीं हुई है। आज सुबह स्कूल से फोन आया था कि १५ तारीख़ तक फीस जमा नहीं हुई तो बच्चों का नाम काट दिया जाएगा। तुम्हीं बता दो, मैं किसके आगे जाकर हाथ फैलाऊ"।,,,,,

सीमा की बातें सुनकर राजेश झल्लाकर बोला "हां,,, हां,,,ठीक है। मैं कल इंतज़ाम करके देता हूं"।,,,,,
इंतजाम करके?,,,,, तुम्हें तो तनख्वाह मिल चुकी है ना।,,,,, सीमा की बात पूरी भी नहीं हुई थी, राजेश नथुने फुलाकर बोला! "मैं अय्याशी करने नहीं जा रहा हूं, सारी तनख्वाह तुम्हीं लोगों पर खर्च होती है। पिछले महीने जो उधार लिया था, वो लौटाना भी तो था। इस महीने की तनख्वाह उधार चुकाने में निकल गई।
यह सुनते ही सीमा धम्म से जमीन पर बैठ गई।,,,,,, उन दोनो की बहस सुनकर बच्चे भी जाग गए थे।,,,,,बहस को बढ़ते हुए देखकर राजेश उठा, उसने नीचे दरी बिछाई और जाकर सो गया। राजेश भी अच्छी तरह से जानता था कि सीमा जो कुछ कह रही है ठीक कह रही है। लेकिन हालात के सामने वह भी मजबूर था।,,,,,,
दूसरे दिन राजेश ने दोस्तों से मदद मांगी, पर इस बार सभी ने उसे टाल दिया। क्योंकि उसने पहले के ही रूपये ही नहीं लौटाए थे।,,,,,
सप्ताह बीतने को था, राजेश ने अभी तक फीस जमा नहीं की थी। सीमा को बच्चों के भविष्य की चिंता खाएं जा रही थी। काफी देर विचारों के उधेड़बुन में उलझने के बाद उसने निर्णय लिया। सिर्फ राजेश की कमाई से घर चलना बहुत मुश्किल है। सुख शांति वाली जिंदगी चाहिए तो उसे भी काम करना होगा।,,,,, वह आज ही राजेश से बात करेगी।,,,
रात का खाना खाने के बाद सीमा राजेश से बोली, "राजेश मैं सोच रही थी कि मैं भी कुछ काम कर लूं? ताकि घर,,,,,,
सीमा की बात पूरी भी नहीं हुई थी, राजेश बोल पड़ा! "पहले घर और बच्चों को ढंग से संभाल लो"।,,,,,सीमा ने फिर साहस जुटा कर कहा ! "तुम्हारे और बच्चों के जाने के बाद मैं खाली तो रहती हूं"।,,,,,,,  राजेश ने अपनी भौंह में गांठ मारते हुए कहा, "ये हमारा पहाड़ नहीं, परदेश है यहां दो मिनट नहीं लगते, बच्चे गायब होने में। तुम नौकरी करोगी तो बच्चों को कौन संभालेगा"?,,,,, सीमा ज़िद पकड़ चुकी थी। वह फिर बोली, "मैं वहीं काम करूंगी, जिससे कि मैं बच्चों को भी देख सकूं, तुम हां तो बोलो"। राजेश बोला, "तुमने ठान ही लिया है तो करो,,,,
अगले ही दिन से सीमा जल्दी-जल्दी घर का काम निपटाती और अखबार में ढूंढ- ढूंढ कर इंटरव्यू दे आती।,,,,, कई दिन बीत जाने के बाद भी सीमा को कहीं नौकरी नहीं मिली। सीमा के पास जो बचत के तीन-चार सौ रूपए थे, वो भी खत्म हो चुके थे।,,,,,
सीमा ने केवल १२वी कक्षा तक ही पढ़ाई की थी। जब वह १२ कक्षा में पढ़ रही थी, तब राजेश का रिश्ता आया। लड़का दिल्ली में किसी कंपनी में सुपरवाइजर है और घर-परिवार से संपन्न है, यह जानने के बाद सीमा के मां-बाबा ने रिस्ते के लिए हां कह दिया। सीमा बेहद सुन्दर और सुशील थी, वह लड़के को पहली ही नज़र में पसन्द आ गई; और चट मंगनी पट ब्याह हो गया।,,,,,,
दिल्ली में सीमा का बिल्कुल भी मन नहीं लगा। बड़े शहर के उस एक कमरे के घर में उसका दम घुटने लगा, बात-बात पर मकान मालिक की टोका-टाकी उसके बर्दाश्त से बाहर थी। गर्मी में लू के थपेड़े, खारा पानी और घर के आगे से बहती गंदे नाले की बदबू से वह बेहद परेशान हो गई थी। उसे लगने लगा था कि दिल्ली जैसे महानगरों की जिंदगी सिर्फ एक खूबसूरत छलावा है।
उसे रह- रह कर अपने पहाड़ों की याद आती थी। वह तरस गई थी अपने पहाड़ों के खुले- खुले घर, बड़ा सा आंगन, ताज़ी हवा, मीठा पानी, भरे- भरे पेड़, अपनों का प्यार पाने के लिए। और अपनोंं को याद करते ही उसकी आंखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगती। उसका मन करता था, वह चीख-चीख कर रोएं। घर से बाहर आवाज ना चली जाय यह सोचकर वह अक्सर अपने दुपट्टे को मुंह में ठूंस लेती, और बिलख- बिलख  खूब रोती। कई घंटे बीत जाने के बाद वह खुद को संभालत, और फिर रोजमर्रा के काा में लग जाती। और इसी तरह जिंदगी बसर हो रही थी।,,,,,
आज एक सप्ताह बीतने को था राजेश ने फीस के रुपए नहीं दिए थे। अंत में  मजबूर होकर सीमा ने अपनी शादी की अंगूठी निकाली और राजेश के हाथ में रखते हुए बोली। इस अंगूठी को बेच दीजिए। क्योंकि बिजली का बिल और किराया भी तो देना है।,,,,, राजेश ने झट से अंगूठी ले ली;  लेकिन बाहर निकलते ही तंज़ कसा ! " याद रखना!,,,, यह अंगूठी तुम मुझे दे रही हो"! और घर से बाहर निकल गया,,,,,। सीमा बुझे हुए मन से रसोई की ओर चल दी।,,,,,,
दूसरे दिन फीस जमा करके सीमा अपनी सहेली राधा से मिलने चली गई। सीमा को अचानक अपने घर पर देखकर राधा बहुत खुश हुई। सीमा को देखते ही राधा ने सीमा को गले से लगा लिया। चाय- नाश्ता करने के बाद राधा सीमा से पूछती है, अब बता तेरा चेहरा इतना बुझा- बुझा सा क्यूं है, तब सीमा राधा से कहती है। क्या बताऊं यार राधा राजेश की तनख्वाह से घर की जरूरतें ही पूरी नहीं हो पाती हैं, कर्ज है कि दिन पर दिन बढता ही जा रहा है। समझ में नहीं आ रहा है कि क्या करूं। आगे बच्चों की पढ़ाई का खर्चा भी बढ़ रहा है, दिन पर दिन किराया भाड़ा, घर के खर्चे सब बढ़ रहें हैं। इसलिए मैं सोच रही हूं यार मैं भी कुछ काम करूं। इस बीच मैंने बहुत कोशिश भी की, पर कोई भी नौकरी नहीं मिली। मैं ज्यादा पढ़ी लिखी भी नहीं हूं, शायद इसलिए नौकरी नहीं मिल रही है।,,,,, 
राधा अपने पति से बात करके देखना ना, वो मुझे कहीं-न-कहीं किसी काम पर अवश्य लगा देंगे।
सीमा की बात सुनकर राधा बोली, "एक काम है तो सही, पर क्या तू कर पायेगी ये काम"? राधा की सुनकर सीमा बोली, "तू बता तो सही  क्या करनाहै"?
राधा बोली, कि माधो बता रहे थे उनकी मालकिन को एक रसोइया की जरूरत है। तू बेहद स्वादिष्ट खाना बनाती है, यदि तू हां कहे तो मैं तेरी बात कर सकती हूं। थोड़ी देर सोचने के बाद सीमा बोली, "ठीक है, मैं बनाउंगी खाना"।  
राधा बोली,,,, "इस समय तो मेमसाब आफिस में होंगी। शाम को चलते हैंं; ठीक है"।,,,,,,सीमा, "बोली ठीक है"।
शाम को बच्चों को राधा के घर छोड़कर वो दोनों एक आलिशान बंगले में पहुंचते हैं, राधा ने दरवाजे की घंटी बजाई। दरवाजा एक ४०-४५ साल की महिला ने खोला। राधा बोली "नमस्ते मेमसाब,,,,, मैं माधो की घरवाली हूं। माधो बता रहे थे कि आपको एक कुक की जरूरत है। ये मेरी सहेली सीमा है। यह बहुत ही स्वादिष्ट खाना बनाती है। इसे काम की जरूरत है, इसीलिए मैंं इसे आपके पास ले आई। उस महिला का नाम शालिनी डबराल था, और वह एक वकील थी। शालिनी बोली, अंदर आओ,,,,,, सामने है रसोई। सीमा रसोईघर में गई उसने एक घंटेे के भीतर सब्जी, चटनी, रायता और चपाती सब तैैया कर दिया। मेमसाब को खाना बहुत पसंद आया और उन्होंने सीमा को ३००० रूपये महिने में नौकरी पर रख लिया। खाना बनाने का समय सुबह ९ बजे और शाम को ६ बजे बताया। यह समय सीमा के हक़ में भी ठीक था, और उससे भी अच्छी बात यह थी कि उसे काम घर के नजदीक मिल गया था। आज वह बहुत खुश थी। राजेश के घर आने पर सीमा ने राजेश को अपने काम के बारे में बताया, पर राजेश ने कोई प्रतिक्रिया ही नहीं दी।,,,,, और इसी तरह एक साल बीत गया।
सीमा बहुत ईमानदार मेहनती थी। सीमा की सादगी, उसके व्यवहार और उसके काम से शालिनी बहुत खुश थी। और निश्चिंत थी।,,,,,
सीमा के घर की आर्थिक स्थिति अब सुधरने लगी थी, और राजेश का चिड़चिड़ा स्वभाव भी बदलने लगा था।
शालिनी अक्सर सीमा से कहती। सीमा पढ़ने की कोई उम्र नहीं होती। तुम अपनी पढ़ाई जारी रखो। पढ़ाई में तुम्हारी मदद मैं करुंगी। शालिनी के बार-बार कहने पर सीमा ने इंद्रा गांधी ओपन यूनिवर्सिटी से बी.ए.की पढ़ाई शुरू कर दी। देखते ही देखते ६ साल बीत गए। इसी साल सीमा ने अंग्रेजी बिषय से एम ए की पढ़ाई पूरी की थी।
अब सीमा शालिनी के घर के साथ-साथ उसके आफिस का काम भी संभालने लगी थी।
राजेश का अपनी कंपनी में प्रमोशन हो गया था। दोनों पति-पत्नी अच्छा कमाने लगे थे। बच्चों का भी अच्छे स्कूल में दाखिला कर दिया था। और अब वो सुकून भरी जिंदगी थी रहे थे।

स्वरचित : मंजू बिष्ट
गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश।

कहानी: पढ़ेगा तभी बढ़ेगा इंडिया

मालती सुबह से ही कोशिश कर रही थी, कि घर का सारा काम जल्दी से जल्दी निपट जाए और वह स्कूल में पहुंच जाए। आज एक अलग ही उत्साह था उसके मन में। वह अपनी जिंदगी में एक नया अध्याय जोड़ने जा रही थी। लगभग एक बजे के आसपास घर के सभी कामों को निपटा कर मालती स्कूल जाने के लिए निकली, बाहर देखा तो अभी भी कोहरे की चादर फैली हुई थी। और ठंड भी बहुत पड़ रही थी। उसने अपनी स्कूटी पकड़ी;,,,,,, और थोड़ी ही देर में वह एक सरकारी स्कूल में पहुंच गई।

स्कूल में केवल तीन ही कमरे थे। एक ही कमरे में दो कक्षाएं साथ- साथ चल रही थी। उसने अध्यापिका महोदया से इजाजत ली और कक्षा में प्रवेश किया, उसने प्रधानाचार्या जी से मिलने के लिए निवेदन किया; अध्यापिका महोदया बोली! "प्रधानाचार्या जी आज छुट्टी पर हैं। मैं आपकी कुछ मदद कर सकती हूं"?,,,,,,  मालती ने उन्हें अपना पूरा परिचय दिया और स्कूल में आने का प्रयोजन बताया,,,,, उसने कहा कि " महोदया मैं एक सामान्य परिवार की महिला हूं; मेरी बहुत इच्छा है कि मैं भी समाज सेवा में अपना योगदान दूं।,,,, पर अपनी आर्थिक परिस्थिति की वजह से मैं चाहकर भी कुछ नहीं कर पाती हूं।,,,, महोदया मैं बड़ा काम तो नहीं कर सकती,,,, पर हां,,,, मैं एक बच्चे की पढ़ाई-लिखाई में अपना सहयोग दे सकती हूं"।
मेरी बात सुनकर अध्यापिका महोदया बोली, "यह तो बहुत ही नेक और पुण्य का काम है। वैसे सरकार और NGO से मदद मिलती तो है; लेकिन फिर भी हमारे देश में गरीबी इतनी ज्यादा है कि कई बार होशियार होने के बावजूद भी कई बच्चे आगे नहीं पढ़ पाते हैं। यदि इन बच्चों की मदद के लिए हमारा समाज भी आगे बढ़ता है, तो हमारे देश के सभी गरीब बच्चों का भविष्य बेहतर हो जायेगा"। उसके बाद अध्यापिका महोदया ने मालती को कक्षा ३ के बच्चों से मिलाया और बोली......"बच्चो आंटी जी किसी एक बच्चे की पढ़ाई-लिखाई की जिम्मेदारी लेना चाहती हैं। कोई बच्चा तैयार है"? इतना कहते ही सारे बच्चे चिल्लाने लगे "आंटी जी मैं तैयार हूं; 'मुझे पढ़ा दो', 'मुझे पढ़ा दो,",,,,, मालती के लिए अब उन बच्चों में से एक बच्चे को चुनना बहुत मुश्किल काम था।
कुछ देर सोचने के बाद मालती अध्यापिका महोदया से कहने लगी। कि ,"महोदया बच्चों की बातें सुनकर मेरे भीतर क्या चल रहा है, इसे मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकती। मैं सिर्फ इतना ही कहुंगी, कि काश! मैं इतनी सक्षम होती।,,,,, मुझे इन बच्चों में से एक को तो चुनना ही है। महोदया जो बच्चा पढ़ने में मेहनती और जरूरतमंद है, मैं उस बच्चे की जिम्मेदारी लेती हूं"। अध्यापिका महोदया बोली, " जी ठीक है,,,,, प्रिया और सकीना कक्षा में सबसे मेहनती बच्चियां हैं। दोनों की आर्थिक स्थिति भी सबसे दयनीय है। आप इन दोनों में से किसी एक बच्ची को पढ़ा सकती हैं।"
अध्यापिका महोदया ने उन दोनों बच्चियों को आगे बुलाया,,,,, दोनों ही बच्चियों ने आकर मालती को अपनी नन्ही बाहों से कसकर पकड़ लिया।,,,,, उन दोनों बच्चियों का मासूम चेहरा देखकर मालती ने दोनों बच्चियों की पढ़ाई-लिखाई की जिम्मेदारी ले ली।,,,,
२०१७  में मालती ने दो बच्चियों से अपना यह सफर शुरू किया। मालती को देख कर उसकी कई सहेलियां भी उससे प्रेरित हुईं, और उसके साथ जुड़ गई। और आज वह अपनी सहेलियों के साथ मिलकर ३५० से ज्यादा बच्चों की पढ़ाई- लिखाई में मदद कर रही है। और साथ ही वह गरीब लड़कियों को निःशुल्क सिलाई-कढ़ाई और फैशन डिजाइनिंग का कोर्स सिखाती है।,,,,,,
मालती दिल से चाहती है कि ये सभी बच्चें शिक्षित होकर एक दिन अपने पैरों में खड़े हो जाएं, और साथ ही अपने माता- पिता का एक मजबूत सहारा बनें।

स्वरचित: मंजू बोहरा बिष्ट।
गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश।
मूल निवासी- हल्द्वानी नैनीताल।
उत्तराखंड।

मान सम्मान: दोहा

मात-पितु की सेवा से, बढ़ता मान सम्मान ।

नेक राह का पथिक बना, जब त्यागा अभिमान।।


माता से ममता मिली, पिता दिये संस्कार।

गुरुदेव के आशीष से, जन्म हुआ साकार।।

कविता: अंतर्मन। -16

 मेरा अंतर्मन हर रोज ये पूछे;

अपने जीवन का तू ध्येय बता दे।

नश्वर है काया, फिर क्यों इतराए;

राग-द्वेष में, क्यों उलझा जाए।।

इक बात मेरी तू ना बिसराना;

माटी से जन्मा, माटी में मिलना।

पग दो पग के हैं, साथी रिस्ते;

बढ़ते कदम तो, नित् नये हैं जुड़ते।।

एक बात कहूं मैं लाख टके की,

"मैं और मेरा" है कहानी, चार दिनों की।

जो बीत गया कल, सो बीत चुका है;

नेकी के पथ पर, अब कदम बढ़ा।।

अपने -पराये का भेद मिटाकर;

सब पर ममता बरसाए जा।

ये जीवन है अनमोल बड़ा ही,

"सद्कर्म" जीवन का ध्येय बना।।

स्वरचित: मंजू बोहरा बिष्ट; 
गाजियाबाद; उत्तर प्रदेश।

संस्मरण: मैं बेटी किसान की

किसान की बेटी होने के कारण एक किसान की मजबूरी और उसकी लाचारी को मैंने बहुत करीब से देखा और जिया है। उत्तराखंड के हरिपुर कुंवर सिंह गांव में मेरा घर है। हरिपुर कुंवर सिंह गांव टांडा जंगल के किनारे पर बसा हुआ है। मेरे पिताजी एक किसान हैं। और हम ५ भाई- बहन हैं। हमारी लगभग ४५ बीघा जमीन है। हमारे गांव में सभी लोगों की लगभग ३०-५० बीघा जमीन होगी। गांव में सभी लोग बहुत मेहनती और परिश्रमी हैं। हमारे गांव में सभी औरतें, आदमी और बच्चे खेतों में काम करते हैं। और साथ ही सभी बच्चे स्कूल भी पढ़ते हैं।,,,,,

जंगल के किनारे गांव होने के कारण खेत में बीज बोने से लेकर फ़सल की कटाई और मणाई तक जंगली जानवरों से फ़सल को सुरक्षित रखना बहुत ही संघर्षपूर्ण और कठिन काम है। नई फ़सल को बोते समय हर किसान के घर में सभी सदस्य ढ़ेरों सपने संजोते हैं। लेकिन अंत में सभी के हाथ में ढांक के तीन पात नज़र आते हैं।,,,,,

नई फ़सल लगाने से पहले मेरे पिताजी सर्वप्रथम खेतों की सिंचाई करते हैं या फिर बारीश का इंतजार करते हैं। ताकि खेतों की जुताई करते समय बैलों को ज्यादा तकलीफ़ ना हो। मां के लाख मना करने पर भी कई बार तो पिताजी सुबह- सुबह ४ बजे उठकर हल-बैल लेकर खेत में पहुंच जाते हैं, और दो- दो, तीन-तीन बार खेतों की जुताई करके मिट्टी को मक्खन सा बना देते हैं। और तब जाकर खेतों में बीज बोते हैं।,,,,,,

बीज बोते ही चिड़िया झुंड के झुंड में आकर खेतों में आक्रमण कर देती हैं, बीज के अंकुरित होने तक मां दिन भर चिड़ियों से खेतों की पहरेदारी करती है, और स्कूल से आने के बाद हम बच्चे भी खेतों की पहरेदारी करते हैं, और वहीं पर बैठ कर हम अपने स्कूल का होमवर्क भी करते हैं।,,,, 

ज्यों ही फ़सल कुछ बड़ी होती है, त्यों ही रात-रात भर नील गायें परेशान करना शुरू कर देती हैं। नील गायों से फ़सल को बचाने के लिए थोड़ी- थोड़ी देर में पिताजी और अन्य पड़ोसी अपने- अपने खेतों में गस्त लगाते रहते हैं।,,,,, 

बीजों के अंकुरित हो जाने के बाद खेतों में नमी बनाए रखने के लिए खेतों की सिंचाई करना भी आवश्यक होता है।,,,, दिन हो या रात, सर्दी की कड़कड़ाती ठंड हो या जेठ मास की प्रचण्ड गर्मी, पिताजी नहर या ट्यूबवेल के पानी से खेतों की सिंचाई करते हैं,,,,,पूस और माघ की कड़कड़ाती ठंडी रातों में मां लालटेन या टार्च जलाकर खेतों में रोशनी दिखाती हुई आगे बढती हैं, और पिताजी फावड़ा कांधे में रखकर कभी गेहूं या ईख की सिंचाई करते हैं।,,,,

गेहूं हो या धान या फिर कोई अन्य फ़सल,,,, फ़सल के बढ़ते ही उसमें कीटनाशक दवा का छिड़काव करना भी जरूरी होता है, मैं अक्सर देखती हूं, पिताजी पंप में दवा भरकर और उस पंप को पीठ में लादकर दिन भर खेतों में एक छोर से दूसरे छोर तक जा- जा कर दवा का छिड़काव करते हैं।,,,,, और कुछ दिनों बाद ही मैं फिर से देखती हूं, पिताजी उसी तरह एक छोर से दूसरे छोर तक जाकर लहलहाती फ़सल में यूरिया खाद डाल रहे हैं।,,,,,

जाड़े के दिनों में कितनी ही ज्यादा कड़कड़ाती ठंड क्यों ना पड़ जाय, या फिर बरसात के दिनों में कितनी ही ज्यादा बारीश क्यों ना आ जाए, मेरे पिताजी खेत में बने मचान पर जाकर ही सोते हैं, ताकि जंगली सुअर, नीलगाय, हाथी आदि से फ़सल को बचाया जा सकें। कई बार  पिताजी रात- रात भर जाग कर जंगली जानवरों से फ़सल को बचा लेते हैं। तो कई बार ज़रा सी आंख लगने पर जंगली जानवर सारी फ़सल नष्ट कर जाते हैं। सुबह-सुबह पिताजी का मुरझाया चेहरा देखकर मां तुरंत समझ जाती है, कि आज जंगली जानवरों ने खेतों में तबाही मचा दी होगी।,,,,

कई बार पूरे साल पिताजी और पड़ोसी मिलकर जंगली जानवरों से फ़सल को सही सलामत बचा लेते हैं। तो कई बार अचानक मौसम का मिजाज बदल जाने से पकी हुई खड़ी फसल बर्बाद हो जाती है।,,,, 

पिछले साल फरवरी और मार्च महीने में अचानक गिरे ओले और बारीश से गेहूं के लहलहाते खेत कुछ ही पल में उजड़ गए। ज्यों- ज्यों बारीश की बूंदें बढ़ती, त्यों- त्यों मां- पिताजी की बैचैनी भी बढ़ती, लाख रोकने बावजूद भी उनकी आंखों से अश्रु धारा छलक जाती। मां कभी भगवान से प्रार्थना करती तो कभी अपनी धोती के पल्लू को हाथों से भींचती। प्रकृति ने कुछ ही देर में सब कुछ तहस नहस और तबाह कर दिया। मां पिताजी की विवशता और उनकी आंखों से छलकते हुए वो आंसू मुझे आज भी बेचैन कर देते हैं।,,,,, 

हर किसान के घर में छ: माह की अथाह मेहनत के बाद जब उनके आंगन या खलिहान में अनाज का ढेर लगता है। तो पूरे परिवार में जो खुशी का माहौल होता है, उस खुशी को मैं शब्दों में बयां ही नहीं कर सकती।,,,,,, 

कटाई- मड़ाई करने के बाद जब भी हमारे आंगन में अनाज का ढ़ेर लगता है तो अनाज को बूरी नजर से बचाने के लिए मां अनाज की ढेरी के बीचों-बीच दरांती रोप देती हैं।,,,, हम बच्चे भी बार- बार जाकर अनाज की ढ़ेरी को प्यार से निहारते और हाथ फेरते रहते हैं, और पुरवाई हवा चलने पर मां अनाज को इतने प्यार से साफ़ करती हैं, ऐसा लगता है मानो अनाज उसकी अपनी संतान हो। और साथ ही पिताजी अनाज को बोरियों में भरकर बोरियों की ढेर लगा कर रख देते हैं। और इंतजार करते हैं, अनाज का उचित मूल्य मिलने की।,,,,,, 

हमेशा की तरह पिताजी का इंतजार, इंतजार ही रह जाता है। सोयाबीन, मक्का, गेहूं धान आज से ५- ६ साल पहले भी १२००/₹,१३००/₹ कुंटल बिकता था और आज भी वही मूल्य में बिक रहा है,,,,,,

अंत में पिताजी सबकुछ जोड़कर जब हिसाब निकालते हैं। तो बचत से ज्यादा लागत लगी होती है। और हमेशा की तरह पिताजी अपने मन को मारकर रह जाते हैं, और जो सपने उन्होंने देखे होते हैं वो सब सपने एक- एक करके दम तोड़ देते हैं।,,,,,,

मेरे मां- पिताजी दिन- रात खेतों में काम करते हैं, और बहुत मेहनती हैं। जंगल के किनारे घर होने के कारण उनका जीवन बेहद कठिन और संघर्षमयी है।,,,,, 

लेकिन कभी भी उन्हें उनके संघर्ष का उचित मूल्य या फल नहीं मिला। नहीं प्रकृति से, नहीं सरकार से।

स्वरचित: मंजू बोहरा बिष्ट, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश।

मूलनिवासी: हल्द्वानी, नैनीताल, उत्तराखंड ।