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संस्मरण: ....और मैं बदल गई।

२०१६ फरवरी माह में मैंने मौत को बहुत करीब से देखा। एक दिन स्कूल की छुट्टी के बाद मैं अपने बेटे को स्कूटी से घर ला रही थी। उस समय शाम के चार बज रहे होंगे। गाजियाबाद के NH ५८ हाइवे पर काफी ट्रेफिक था। आगे निकलने की होड़ में एक मिनी ट्रक हमारी स्कूटी से आ टकराया। और हम दोनों मां- बेटे सड़क के किनारे जाकर गिरे। ,,,,होश संभालते ही सबसे पहले मैंने अपने बेटे को सिर से लेकर पैर तक अलट- पलट देखा। हम दोनों ने हैल्मेट पहने हुए थे। शायद इसीलिए हमें बस हल्की- फुल्की खरोचें ही आई। और हम दोनों सही- सलामत बच गए। मैंने भगवान का शुक्रिया अदा किया और नज़र उठाकर देखा, वहां पर काफी भीड़ एकत्रित हुई थी। और सभी के जुबान पर बस एक ही बात थी, कि किसी पुण्य कर्म के प्रताप से ही आज तुम दोनों बच गए हो।,,,, तभी मेरी नज़र स्कूटी पर पड़ी, स्कूटी की हालात भी खराब हो चुकी थी। किसी भले मानस ने जैसे- तैसे करके स्कूटी स्टार्ट की। हम दोनों उठे, स्कूटी पकड़ी और डाक्टर के क्लीनिक की ओर चल दिए।,,,,
घर आने के बाद भी काफी समय तक हम सामान्य नहीं हो पाए। मैं अंदर तक हिल चुकी थी, और मेरा बच्चा भी काफी सहम गया था। मेरे मन में एक ही विचार आ रहा था। कि जब भी मौत को आना होता है तो वह उम्र नहीं देखती, वह कभी भी,,, कहीं पर,,,,किसी भी रूप में आ सकती है। उस हादसे ने जीवन के प्रति मेरे दृष्टिकोण को बदलकर ही रख दिया।,,, 
तब पहली बार मैंने महसूस किया कि हमारी जिंदगी कितनी अनमोल है। और हम अपनी इस जिंदगी को सिर्फ चारदीवारी तक सीमित करके, मौज-मस्ती या अन्य व्यर्थ की बातों में यूं ही गंवा देते हैं।,,,  
मैं रात भर इसी उधेड़बुन में रही;,,, हे भगवान! आज हम बीच सड़क में गिर गए होते तो!... इस हादसे में मेरे बच्चे को कुछ हो जाता तो!.. या इस हादसे में मेरी ही जान चली गई होती तो!.. कौन याद करता मुझे?.. मेरे परिवार वाले!... कुछ मित्र?... या कुछ रिश्तेदार?... और कब तक?.... क्या मैं अन्य लोगों की यादों में जिंदा रहती?... मैंने अपने जीवन में ऐसा काम ही क्या किया है?... जिसकी वजह से लोग मुझे याद रखते!... इन्हीं बातों ने मुझे अंदर तक झिंझोड़ कर रख दिया।,,,
मैं कई दिन तक इन्हीं सोच-विचारों में उलझी रही। काफी सोचने- विचारने बाद मैंने निर्णय लिया "कि अब आगे की जिंदगी को मैं यूं ही बर्बाद नहीं करूंगी। छोटा ही सही मैं भी अपने जीवन में एक नेक काम अवश्य करूंगी"।,,,,
मेरे लिए सबसे बड़ा सवाल था, कि अपनी आगे की शुरूआत मैं कहां से करूं?... एक मध्यमवर्गीय परिवार की महिला होने के कारण, मैं ऐसा क्या काम करूं, जो मुझे सुकून भी दे, और जिसे मैं सरलता से कर भी सकूं।,,, बहुत सोचने- विचारने पर भी मुझे कोई राह नहीं मिल रही थी। तब मुझे महसूस हुआ।,,,,इस तरह तो मैं कुछ भी नहीं कर पाउंगी। कुछ भी नया शुरू करने से पहले मुझे स्वयं ( अपनी सोच, स्वभाव, व्यवहार) को बदलना होगा। तभी मैं कुछ कर पाउंगी और आगे बढ़ पाउंगी।,,,
सर्वप्रथम मैंने अपने अंदर "स्वयं" को ढूंढना शुरू किया। इस दौड़ती- भागती जिंदगी में सबसे मुश्किल काम है, अपने अंदर "स्वयं" को ढूंढना।,,,,हर संभव प्रयास करके जब मैंने "स्वयं" को थोड़ा बहुत जाना,,,, तब मैंने पाया कि मुझमें कुछ खूबियां तो हैं, पर साथ ही बहुत कमियां भी हैं।,,,, मैंने खुद में सबसे बड़ी कमी यह देखी, कि घर- गृहस्थी की व्यस्तता, जीवन के उतार- चढ़ाव और संघर्षों ने मुझे चिढ़- चिढ़ और कुढ़- कुढ़ बना दिया है।,,,, सबसे पहले तो मुझे अपनी इसी कमी को दूर करना होगा।,,,, "जब मैं खुद तन-मन से स्वस्थ और खुश रहुंगी तभी तो मैं दूसरों को खुशी और सुख दे पाऊंगी"।,,,,,
सच में "कितना आसान काम है ना,,, दूसरों में कमियां निकालना। लेकिन खुद में कमियां निकालना उतना ही मुश्किल काम है! और उन कमियों को स्वीकार करना तो, और भी मुश्किल काम है।,,,, मैंने इस मुश्किल काम को किया। और फिर मैंने पूरे शिद्दत से "स्वयं" को तराशना शुरू कर दिया"।,,,,,,
खुद में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए मैंने और भी कई प्रयास किए। और अंत में मैंने "ध्यान" का मार्ग चुना। शुरूआत में मुझे "ध्यान" करना बहुत ही मुश्किल काम लग रहा था। लेकिन लगभग ५- ६ महिने के बाद मुझे महसूस हुआ कि मैं अंदर से मजबूत हो रही हूं। मेरे मन में जो उथल-पुथल रहती थी वह कम हो रही है।,,,,
तत्पश्चात मैंने सर्वप्रथम जनवरी २०१७ "आंचल की छांव" की नींव डाली। अर्थात (अपनी मातृछाया में गरीब बच्चों को शिक्षित करने और उन्हें सिलाई- कढ़ाई सिखाकर आत्मनिर्भर बनाने का बीड़ा उठाया।) अपने बजट को ध्यान में रखते हुए मैंने दो गरीब बच्चियों (एक हिंदू एक मुस्लिम) की पढ़ाई-लिखाई की जिम्मेदारी ली।,,,, दो बच्चियों से मैंने यह सफर शुरू किया। और फिर मेरे इस मुहिम में धीरे- धीरे मेरी सखियां भी जुड़ती चली गई। और आज शिक्षा के क्षेत्र में हम ३५० से ज्यादा बच्चों की मदद कर रहे हैं। और साथ ही गरीब लड़कियों को मैं निःशुल्क सिलाई-कढ़ाई और फैशन डिजाइनिंग का कोर्स सिखाती हूं। ताकि वो अपने पैरों पर खड़ी हो सके।,,,,
मैं समाजसेवा के इन अनुभवों को डायरी में लिखने लगी।
२०२० देश में अचानक आई भारी विपदा कोरोना महामारी में भी मैंने संकल्प लिया; कि मैं हर सम्भव कोशिश करूंगी, कम से कम ६- ७ जरूरतमंद गरीब को मैं नियमित रूप से भोजन करा सकूं। लाकडाउन लगते ही हम लोग नियमित रूप से गरीब और शहर से गांव की ओर पलायन कर रहे लोगों के लिए खाना बनाकर भेजने लगे। इस मुहिम में तो कई लोग जुड़े हुए थे। मैं भी उसी मुहिम से जाकर जुड़ गई,,, 
कोरोना के केस बढ़ने से डेढ़ महीने बाद हमारी सोसायटी सील हो गई। लेकिन मेरे इरादे नहीं बदले, उसके बाद भी मैं अपनी सखियों के साथ मिलकर जरूरत मंद परिवार तक राशन पहुंचाने की कोशिश करती रही।,,,,,
कोरोना महामारी में लोगों से मिलना- जुलना बिल्कुल ही बंद हो गया था। मैंने पहली नवरात्रि से मास्क बनाना शुरू किया, और खूब मास्क बनाए। और फिर उन्हें सफाई कर्मचारियों और गार्डो के द्वारा बंटवा देती थी। शुरू में लाकडाउन के १५ दिन तो जैसे- तैसे कट गए, लेकिन लाकडाउन फिर १५ दिन आगे बढ़ गया।,,,,अप्रैल- मई के वो बड़े- बड़े दिन.... जो काटे नहीं कट रहे थे।,,, 
तब मैंने सोचा,,,,यार बचपन में लिखने का बड़ा शौक था मुझे।,,, पर! घर गृहस्थी को संवारने में अपने इस हुनर को मैं भूल ही गई हूं। क्यों ना, इस लाकडाउन में अपना यह शौक पूरा किया जाये। और मैंने लिखना शुरू कर दिया।..... लिखना शुरू तो कर दिया!,,,, पर !,,,मुश्किल यह थी पढ़ाई- लिखाई को छूटे हुए पूरे २० साल हो गए थे। और शब्दकोश को मैं पूरी तरह भूल चुकी थी। कभी- कभी लिखती थी। लेकिन बेतुका सा, यूं भी कह सकते हैं बिना सिर- पैर का।,,,,
इसी बीच मैं मातृभाषा काम. से जुड़ी। उन्होंने ग्रुप को हर विधा में लिखना सिखाया। मेरे लिए तो सबकुछ नया सा था। इस ग्रुप में मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला,,,,, और फिर मेरी कलम चल पड़ी।,,,,, इसी दौरान मैं कई पत्र-पत्रिकाओं से जुड़ गई।,,, और यहां से मेरी ज़िंदगी का एक नया हसीन सफ़र शुरू हो गया।,,,,    
"मैंने इन 5- 6 सालों में अपने जीवन का रुख पूर्णतया सकारात्मक कर्म की ओर मोड़ दिया मैंने अपने जीवन में छोटे- छोटे लक्ष्य बना दिए। जैसे मेरा पहला लक्ष्य गरीब और जरूरतमंद बच्चों को शिक्षित करना और उन्हें आत्मनिर्भर बनाना है।,,, 
दूसरा लक्ष्य कपड़े इक्कट्ठे करके उन्हें जरुरतमंदों में बांट देना है।,,,,
तीसरा लक्ष्य किसी भी गरीब बच्ची की शादी में अपनी सखियों के साथ मिलकर उन्हें निस्वार्थ सहयोग देना है।,,,,
और चौथा लक्ष्य कुष्ठरोगियों की मदद करना है।,,,,
यह सभी काम मैं तभी कर पाई जब मेरी सखियों से मुझे भरपूर सहयोग और सानिध्य मिला।
अपनी इन्हीं छोटी- छोटी कोशिशों से आज मैंने कई बच्चों, जरूरतमंदों, और अनजान लोगों के दिलों में अपनी एक छोटी सी, प्यारी सी जगह बनाई है"।,,,, "जो मेरे लिए बेहद अनमोल और कीमती है"।,,,,,,
बहुत सुकून मिलता है, मुझे अपने इन छोटे- छोटे कामों से। ऐसे ही छोटे- छोटे कामों से मैंने अपने ही जीवन में और भी कई सकारात्मक बदलाव किए हैं।,,,,,, और आज समाज में भी मैं अपनी एक छोटी सी सार्थक भूमिका निभा रही हूं।

स्वरचित: मंजू  बोहरा बिष्ट,
गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश।
मूल निवासी- हल्द्वानी, नैनीताल, 
उत्तराखंड।

5 comments:

  1. बहुत ही प्रेरणा दायक आत्मकथा है

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  2. बहुत बढ़िया

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