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संस्मरण: मैं बेटी किसान की

किसान की बेटी होने के कारण एक किसान की मजबूरी और उसकी लाचारी को मैंने बहुत करीब से देखा और जिया है। उत्तराखंड के हरिपुर कुंवर सिंह गांव में मेरा घर है। हरिपुर कुंवर सिंह गांव टांडा जंगल के किनारे पर बसा हुआ है। मेरे पिताजी एक किसान हैं। और हम ५ भाई- बहन हैं। हमारी लगभग ४५ बीघा जमीन है। हमारे गांव में सभी लोगों की लगभग ३०-५० बीघा जमीन होगी। गांव में सभी लोग बहुत मेहनती और परिश्रमी हैं। हमारे गांव में सभी औरतें, आदमी और बच्चे खेतों में काम करते हैं। और साथ ही सभी बच्चे स्कूल भी पढ़ते हैं।,,,,,

जंगल के किनारे गांव होने के कारण खेत में बीज बोने से लेकर फ़सल की कटाई और मणाई तक जंगली जानवरों से फ़सल को सुरक्षित रखना बहुत ही संघर्षपूर्ण और कठिन काम है। नई फ़सल को बोते समय हर किसान के घर में सभी सदस्य ढ़ेरों सपने संजोते हैं। लेकिन अंत में सभी के हाथ में ढांक के तीन पात नज़र आते हैं।,,,,,

नई फ़सल लगाने से पहले मेरे पिताजी सर्वप्रथम खेतों की सिंचाई करते हैं या फिर बारीश का इंतजार करते हैं। ताकि खेतों की जुताई करते समय बैलों को ज्यादा तकलीफ़ ना हो। मां के लाख मना करने पर भी कई बार तो पिताजी सुबह- सुबह ४ बजे उठकर हल-बैल लेकर खेत में पहुंच जाते हैं, और दो- दो, तीन-तीन बार खेतों की जुताई करके मिट्टी को मक्खन सा बना देते हैं। और तब जाकर खेतों में बीज बोते हैं।,,,,,,

बीज बोते ही चिड़िया झुंड के झुंड में आकर खेतों में आक्रमण कर देती हैं, बीज के अंकुरित होने तक मां दिन भर चिड़ियों से खेतों की पहरेदारी करती है, और स्कूल से आने के बाद हम बच्चे भी खेतों की पहरेदारी करते हैं, और वहीं पर बैठ कर हम अपने स्कूल का होमवर्क भी करते हैं।,,,, 

ज्यों ही फ़सल कुछ बड़ी होती है, त्यों ही रात-रात भर नील गायें परेशान करना शुरू कर देती हैं। नील गायों से फ़सल को बचाने के लिए थोड़ी- थोड़ी देर में पिताजी और अन्य पड़ोसी अपने- अपने खेतों में गस्त लगाते रहते हैं।,,,,, 

बीजों के अंकुरित हो जाने के बाद खेतों में नमी बनाए रखने के लिए खेतों की सिंचाई करना भी आवश्यक होता है।,,,, दिन हो या रात, सर्दी की कड़कड़ाती ठंड हो या जेठ मास की प्रचण्ड गर्मी, पिताजी नहर या ट्यूबवेल के पानी से खेतों की सिंचाई करते हैं,,,,,पूस और माघ की कड़कड़ाती ठंडी रातों में मां लालटेन या टार्च जलाकर खेतों में रोशनी दिखाती हुई आगे बढती हैं, और पिताजी फावड़ा कांधे में रखकर कभी गेहूं या ईख की सिंचाई करते हैं।,,,,

गेहूं हो या धान या फिर कोई अन्य फ़सल,,,, फ़सल के बढ़ते ही उसमें कीटनाशक दवा का छिड़काव करना भी जरूरी होता है, मैं अक्सर देखती हूं, पिताजी पंप में दवा भरकर और उस पंप को पीठ में लादकर दिन भर खेतों में एक छोर से दूसरे छोर तक जा- जा कर दवा का छिड़काव करते हैं।,,,,, और कुछ दिनों बाद ही मैं फिर से देखती हूं, पिताजी उसी तरह एक छोर से दूसरे छोर तक जाकर लहलहाती फ़सल में यूरिया खाद डाल रहे हैं।,,,,,

जाड़े के दिनों में कितनी ही ज्यादा कड़कड़ाती ठंड क्यों ना पड़ जाय, या फिर बरसात के दिनों में कितनी ही ज्यादा बारीश क्यों ना आ जाए, मेरे पिताजी खेत में बने मचान पर जाकर ही सोते हैं, ताकि जंगली सुअर, नीलगाय, हाथी आदि से फ़सल को बचाया जा सकें। कई बार  पिताजी रात- रात भर जाग कर जंगली जानवरों से फ़सल को बचा लेते हैं। तो कई बार ज़रा सी आंख लगने पर जंगली जानवर सारी फ़सल नष्ट कर जाते हैं। सुबह-सुबह पिताजी का मुरझाया चेहरा देखकर मां तुरंत समझ जाती है, कि आज जंगली जानवरों ने खेतों में तबाही मचा दी होगी।,,,,

कई बार पूरे साल पिताजी और पड़ोसी मिलकर जंगली जानवरों से फ़सल को सही सलामत बचा लेते हैं। तो कई बार अचानक मौसम का मिजाज बदल जाने से पकी हुई खड़ी फसल बर्बाद हो जाती है।,,,, 

पिछले साल फरवरी और मार्च महीने में अचानक गिरे ओले और बारीश से गेहूं के लहलहाते खेत कुछ ही पल में उजड़ गए। ज्यों- ज्यों बारीश की बूंदें बढ़ती, त्यों- त्यों मां- पिताजी की बैचैनी भी बढ़ती, लाख रोकने बावजूद भी उनकी आंखों से अश्रु धारा छलक जाती। मां कभी भगवान से प्रार्थना करती तो कभी अपनी धोती के पल्लू को हाथों से भींचती। प्रकृति ने कुछ ही देर में सब कुछ तहस नहस और तबाह कर दिया। मां पिताजी की विवशता और उनकी आंखों से छलकते हुए वो आंसू मुझे आज भी बेचैन कर देते हैं।,,,,, 

हर किसान के घर में छ: माह की अथाह मेहनत के बाद जब उनके आंगन या खलिहान में अनाज का ढेर लगता है। तो पूरे परिवार में जो खुशी का माहौल होता है, उस खुशी को मैं शब्दों में बयां ही नहीं कर सकती।,,,,,, 

कटाई- मड़ाई करने के बाद जब भी हमारे आंगन में अनाज का ढ़ेर लगता है तो अनाज को बूरी नजर से बचाने के लिए मां अनाज की ढेरी के बीचों-बीच दरांती रोप देती हैं।,,,, हम बच्चे भी बार- बार जाकर अनाज की ढ़ेरी को प्यार से निहारते और हाथ फेरते रहते हैं, और पुरवाई हवा चलने पर मां अनाज को इतने प्यार से साफ़ करती हैं, ऐसा लगता है मानो अनाज उसकी अपनी संतान हो। और साथ ही पिताजी अनाज को बोरियों में भरकर बोरियों की ढेर लगा कर रख देते हैं। और इंतजार करते हैं, अनाज का उचित मूल्य मिलने की।,,,,,, 

हमेशा की तरह पिताजी का इंतजार, इंतजार ही रह जाता है। सोयाबीन, मक्का, गेहूं धान आज से ५- ६ साल पहले भी १२००/₹,१३००/₹ कुंटल बिकता था और आज भी वही मूल्य में बिक रहा है,,,,,,

अंत में पिताजी सबकुछ जोड़कर जब हिसाब निकालते हैं। तो बचत से ज्यादा लागत लगी होती है। और हमेशा की तरह पिताजी अपने मन को मारकर रह जाते हैं, और जो सपने उन्होंने देखे होते हैं वो सब सपने एक- एक करके दम तोड़ देते हैं।,,,,,,

मेरे मां- पिताजी दिन- रात खेतों में काम करते हैं, और बहुत मेहनती हैं। जंगल के किनारे घर होने के कारण उनका जीवन बेहद कठिन और संघर्षमयी है।,,,,, 

लेकिन कभी भी उन्हें उनके संघर्ष का उचित मूल्य या फल नहीं मिला। नहीं प्रकृति से, नहीं सरकार से।

स्वरचित: मंजू बोहरा बिष्ट, गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश।

मूलनिवासी: हल्द्वानी, नैनीताल, उत्तराखंड ।


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