मेरा अंतर्मन हर रोज ये पूछे;
अपने जीवन का तू ध्येय बता दे।
नश्वर है काया, फिर क्यों इतराए;
राग-द्वेष में, क्यों उलझा जाए।।
इक बात मेरी तू ना बिसराना;
माटी से जन्मा, माटी में मिलना।
पग दो पग के हैं, साथी रिस्ते;
बढ़ते कदम तो, नित् नये हैं जुड़ते।।
एक बात कहूं मैं लाख टके की,
"मैं और मेरा" है कहानी, चार दिनों की।
जो बीत गया कल, सो बीत चुका है;
नेकी के पथ पर, अब कदम बढ़ा।।
अपने -पराये का भेद मिटाकर;
सब पर ममता बरसाए जा।
ये जीवन है अनमोल बड़ा ही,
"सद्कर्म" जीवन का ध्येय बना।।
स्वरचित: मंजू बोहरा बिष्ट;
गाजियाबाद; उत्तर प्रदेश।
Bdiya
ReplyDeleteNice
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