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कविता: अंतर्मन। -16

 मेरा अंतर्मन हर रोज ये पूछे;

अपने जीवन का तू ध्येय बता दे।

नश्वर है काया, फिर क्यों इतराए;

राग-द्वेष में, क्यों उलझा जाए।।

इक बात मेरी तू ना बिसराना;

माटी से जन्मा, माटी में मिलना।

पग दो पग के हैं, साथी रिस्ते;

बढ़ते कदम तो, नित् नये हैं जुड़ते।।

एक बात कहूं मैं लाख टके की,

"मैं और मेरा" है कहानी, चार दिनों की।

जो बीत गया कल, सो बीत चुका है;

नेकी के पथ पर, अब कदम बढ़ा।।

अपने -पराये का भेद मिटाकर;

सब पर ममता बरसाए जा।

ये जीवन है अनमोल बड़ा ही,

"सद्कर्म" जीवन का ध्येय बना।।

स्वरचित: मंजू बोहरा बिष्ट; 
गाजियाबाद; उत्तर प्रदेश।

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