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मुक्ति: कविता।

क़ैद हूं इस पिंजड़े में कब से,

चाह रही उन्मुक्त हो जाऊं।

महबूब का निलय है अभ्र के पीछे,

उस तक कैसे मैं संदेशा भेजूं।।


मिलन की लौ मन में जगाकर,

उसकी बाट जोह रही हूं।

गुजरते लम्हे में स्मरण उसी का,

विश्वास की डोरी थामे खड़ी हूं।।


बीत रही निशा क्षण- क्षण,

बुझने लगे हैं चिराग सभी।

ब्रह्म बेला के सुअवसर पर,

साक्षात्कार होगा दोनों का तभी।।


वह आ रहा मेरा प्राणेश्वर,

स्वेत अश्वरथ में सवार।

रोम- रोम पुलकित हुआ,

बावरा मन करे श्रंगार।।


श्वेत अश्वरथ से मेरे प्रिय ने,

जब धरा पर पग धरा।

धड़कन ने बस इतना कहा,

धीरे- धीरे करीब आना जरा।।


चाहत बस इतनी है मेरी,

अलपक महबूब को निहार लूं।

समा जाऊं उसमें इस कदर,

ये सांसें उस पर वार दूं।‌।


तोड़कर पिंजड़ा स्वछंद होकर,

मेरे महबूब मैं तेरे संग चलुंगी।

माया- मोह के बंधन काटकर,

अभ्र के पार तेरे संग रहुंगी।।


स्वरचित: मंजू बोहरा बिष्ट,

गाजियाबाद उत्तर प्रदेश।





3 comments:

  1. बहुत सुंदर,

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  2. परमात्मा से आत्मा के मिलन की कामना का सुंदर वर्णन।

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