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मैं भाव शून्य तो नहीं हूं। कविता।

दिन बीता, महीना बीता, बीत गए हैं साल।

बरसों से मैं ढूंढ रही हूं, अस्तित्व अपने ससुराल।।

रोज सुबह मैं उठकर, लेती हूं झाड़ू हाथ में।

करती हूं अपने घर का, हर कोना-कोना साफ मैं।।

सुबह- सुबह चाय की प्याली, देती हूं सबके हाथ में।

तोलिया, कपड़े, जूते- जुराबें, रखती हूं तैयार मैं।।

सरपट भागती कलेवा बनाती, बच्चों को जगाती हूं।

स्कूल- आफिस में ना हो देरी, अक्सर अपने हाथ जलाती हूं ।।

एक पैर पर होकर खड़ी, मैं सबकी फरमाइशें सुनती हूं।

सुबह से लेकर रात तक, मैं मशीन की भांति चलती हूं।।

ना पहनूं हूं मैं महंगी साड़ी, ना सोने का गहना।

छोटी सी तनख्वाह में, मुश्किल से चलता है महीना।।

कभी ना करती कोई शिक़ायत, बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हूं।

लक्ष्मी रूप धरकर हमेशा, पति देव की हिम्मत बढ़ाती हूं।।

हर पल कोशिश रहती है मेरी, अपना सौ प्रतिशत देती हूं।

लाख कोशिशों के बाद भी, मैं दिलों में क्यों बस नहीं पाती हूं।।

मैं जानती हूं वर्तमान के, कुछ बहू- बेटे नालायक हैं।

पर! मैंने तो स्वप्न में भी नहीं सोचा, फिर मुझसे क्यों शिकायत है।।

हाथों की पांचों अंगुलियों भी, एक समान नहीं होती हैं।

फिर क्यों कहते हो आजकल की बहुएं, संस्कारी नहीं होती हैं।।

आज की बहू मैं साक्षर- कर्मठ, हां.. मुझमें स्वाभिमान अथाह है।

कौन सी परीक्षा देकर बताऊं, मुझे भी दुनिया दारी की परवाह है।।

दर्द होता है मुझको भी बहुत, जब सुनती हूं मैं ताने।

अपने मन की पीड़ा को, मैं जाऊं कहां बताने।।

कभी कहता मन शांत अन्नपूर्णा, कभी कहता बन जा चंडी।

मां की बातें याद आते ही, पड़ जाती हूं मैं ठंडी।।

पास- पड़ोसी, फ़ोन को छोड़ो, मुझसे भी बातें किया करो।

मैं इस घर की बहू हूं, कभी मेरी सुध भी लिया करो।।

मात- पिता, भाई- बहन, मैं छोड़ आईं घर मां का।

बेटी मानों मैं नहीं कहती, बस दे दो दर्जा बहू का।।

अस्तित्व को मेरे ना नकारो, मैं भाव शून्य नहीं हूं।

आखिर कब तक सह पाऊंगी, मैं जीती- जागती इंसान हूं।।

मैं जीती- जागती एक इंसान हूं।।.....


स्वरचित: मंजू बोहरा बिष्ट।

गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश।

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