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आत्मकथा: जिंदगी।

इस वर्ष जून माह में इतनी ज्यादा गर्मी पड़ रही है लग रहा है आसमान से अंगारे गिर रहे हैं। इंसान तो अपने घर के अंदर या कहीं छांव की पनाह ले लेता है, पर!  बेचारा जानवर क्या करें, वो तो खाना- पानी दोनों के लिए तरस रहे हैं, और भटक रहे हैं, ऊपर से यह जानलेवा गर्मी,,,, 5- 6 साल से मैंने अपनी बालकनी के पास गैस पाइप लाइन में एक जग बांधा हुआ है, इस जग में सुबह से लेकर शाम तक मैं कम-से-कम 8 या 9 बार पानी भरती हूं। और आजकल तो मैं जग को फ्रिज के पानी से भरती हूं।,,, पानी देने की इस आदत से अब दिनभर मेरे दिमाग में एक ही बात रहती है, पक्षियों ने पानी पी लिया होगा!,,जग खाली हो गया होगा!,,,पक्षी और कबूतर  दिनभर पानी के आसपास ही बैठे रहते हैं,,,,,गंदगी की वजह से अक्सर हम लोग कबूतरों को पसंद नहीं करते,,तो क्या हुआ यार,, हमारे जीवन में कई लोग ऐसे होते हैं जिन्हें हम पसन्द नहीं करते,, तो क्या हम उनके काम नहीं करते?? उनकी सेवा सुश्रुषा छोड़ देते हैं??,,, करते हैं ना।,,  इसलिए मैं तो कहुंगी बस यही सोचकर आप लोग भी इन पक्षियों को दाना- पानी दिया करें,, पहले पशु-पक्षी प्रकृति पर आश्रित थे आज हम मानव पर आश्रित रहते हैं।,,, सच कहूं,,,मेरा यह छोटा सा काम मुझे बहुत ही ज्यादा सुकून देता है।

स्वरचित: मंजू बोहरा बिष्ट 

गाजियाबाद उत्तर प्रदेश।


कान्हा ज्यू को प्रथम पत्र

 हे मेरे कान्हा, 

कैसे हैं आप, मैं यह नहीं पूछूंगी। क्योंकि मुझे पता है आप जगत के पालनहार हैं, तो! बढ़िया ही होंगे। मुझे शरणागति चाहिये भगवन, पर कैसे ? 

मैं तो बचपन से ही क्रोध, लोभ और मद की मटकी अपने सिर पर रखकर फ़िर रही हूं😞,,, हाथों के सहारे बिना चलने पर यह मटकी नहीं गिरती, मैं जितना तेज भागती हूं यह मटकी उतनी ही स्थिरता से सिर पर टिकी रहती है,,,सच कहूं  कान्हा अब मेरी गर्दन थक गई है। इसलिए कह रही हूं🥺,,,अब यह बोझ मुझसे नहीं ढ़ोया जाता 😢,,, please एक बार आओ ना, आकर यह मटकी फोड़ दो। और मुझे एकदम खाली और हल्का कर दो।

स्वरचित

प्रार्थनीय

मंजू बिष्ट, गाजियाबाद


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आत्मकथा: जिंदगी 

5- 6 साल से अपनी बालकनी के पास गैस पाइप लाइन में मैंने एक जग बांधा हुआ है, मैं इस जग को सुबह से लेकर शाम तक कम-से-कम 8 या 9 बार पानी से भरती हूं। दिनभर मेरे दिमाग में यही बात रहती है अब तक तो पक्षियों ने पानी पी लिया होगा!,,जग खाली हो गया होगा!,,, गंदगी की वजह से अक्सर हम लोग कबूतरों को पसंद नहीं करते,,तो क्या हुआ यार,, हमारे जीवन में कई लोग ऐसे होते हैं जिन्हें हम पसन्द नहीं करते,, तो क्या हम उनके काम नहीं करते?? उनकी सेवा सुश्रुषा छोड़ देते हैं??,,, करते हैं ना।,,  इसलिए मैं तो कहुंगी बस यही सोचकर इन पक्षियों को भी दाना- पानी दिया करें,, पहले पशु-पक्षी प्रकृति पर आश्रित थे आज हम मानव पर आश्रित हैं।,,, सच कहूं,,,मेरा यह छोटा सा काम मुझे बहुत ही ज्यादा सुकून देता है।

स्वरचित: मंजू बोहरा बिष्ट 

गाजियाबाद उत्तर प्रदेश।

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शिवसाधना क्षणिका।

देख जटा में गंगा की धार,

गले में लिपटा नागों का हार।

तेरी इसी छवि पर भोले,

मैं हुई बलिहार ।।


स्वरचित: मंजू बोहरा बिष्ट।

गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश ‌

शरारती टिंकू: बाल कविता।

पढ़- पढ़ कर थक गए टिंकू भाई।

चूहे ने पेट में धमाल मचाई।।

टिंकू को मामा की याद है आयी।

मामा से की थी दस रुपए कमाई।।

दस रुपया देखकर जी ललचाया।

आहा! चटपटा कुरकुरा याद आया।।

पर! मम्मी कुरकुरा खाने ना देंगी।

पापा से भी डांट मिलेगी।।

कुरकुरा मिल जाए टिंकू सोचे।

अचानक गिरा, धम्म से बेड के नीचे।।

धम्म! की आवाज सुन मम्मी दौड़ी। 

मम्मी के पीछे, चाची- ताई दौड़ी।।

हाये! टिंकू गिर गया नीचे।

लिया गोदी में ममता से सींचे।।

ताई ने टिंकू की गाल थपथपाई।

जा बेटा खेल, चाची ने दी दुहाई।।

टिंकू की जैसे लॉटरी लग गई।

बल्ले- बल्ले नाचे टिंकू भाई।।

संग दादी के वो निकल गया।

दस रुपए का उसने कुरकुरा लिया।।

कुरकुरा देखकर मुस्कान है छाई।

शरारती टिंकू ने ली अंगड़ाई।।


स्वरचित: मंजू बोहरा बिष्ट 

गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश। 

आत्मकथा: जिंदगी।

 जिंदगी 🤔,,, स्टेटस के जरिए अक्सर हम अपने मन की बात और भावों को बयां करते हैं।,,,, है ना😊,,, सही भी है,,,👍 कई बार झिझक, डर, मान या लिहाज के कारण हम सामने वाले इंसान की ग़लती पर चाहकर भी कुछ बोल नहीं पाते,,,🤔 उसे समझा नहीं पाते 😔 और मन ही मन या तो हम घुटते हैं या कुढ़ते रहते हैं।😞,,, और धीरे- धीरे एक दिन स्वयं ही एंजाइटी और डिप्रेशन का शिकार बन जाते हैं।,,, और हमें पता ही नहीं चलता।😌,,,, यदि!!!!🤔 हम पशु होते तो शायद सामने वाले के स्वभाव से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता।,,,, पर हम इंसान हैं,,,😊 पढ़े- लिखे और जागरूक हैं,,,👍  इसलिए 🥰,,, हमें बहुत फर्क पड़ता है यार।,,,, हम स्वयं को कितना ही मजबूत दिखाने की कोशिश कर लें।🤔 लेकिन सच तो यह है, हम अंदर से टूट चुके होते हैं।🙄,,,, क्योंकि बिना परिवार के या दोस्तों के हमारा यह मनुष्य जीवन व्यर्थ है।😌,,,,, अक्सर हम लोग रिश्तों में पढ़ने वाली दरार की जिम्मेदारी सामने वाले के सिर पर थोप देते हैं। और स्वयं को खरा सोना मानते हैं।,,, मानते हैं ना,,,, और उस रिश्ते से दूरी बना लेते हैं,,, एक समय ऐसा आता है कि यह दूरी हमारे रिश्ते की गर्माहट को खत्म कर देती है।,,, और,,जब तक हमें एहसास होता है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।,,, हंसना- बोलना, रूठना, मनाना जैसे अपनेपन के अधिकार पर चुप्पी की दीवार खिंच जाती है।😔😔,,, जिंदगी जीने को लेकर लोगों का अपना- अपना नजरिया है।☝️,,, और अपने नजरिए के हिसाब से सभी अपने आप में खरा सोना हैं।,,,, लेकिन यह जरूरी नहीं है कि आपका नजरिया सामने वाले के लिए भी सही हो।😊,,,,,,,,विचारों और नजरिए का खेल ही है जो हमें एक दूसरे के करीब लाते हैं, या एक दूसरे से दूर कर देते हैं!,, ❤️ 

स्वरचित: मंजू बोहरा बिष्ट,

गाजियाबाद उत्तर प्रदेश।



गीत: दोस्ती।

मेरी रूह का तेरी रूह से, 

जुड़ा यूं नाता है।

जब तक ना हो तुझसे गूफ्तगू, 

मुझे चैन न आता है।।


मुझमें बसी तू, तुझमें बसी मैं, 

हम ऐसे हमराज हैं। 

दोस्ती पे मर मिटने वाले,

हम ऐसे परवाज हैं।।


कभी गुड़ियों के संग खेले हम,

कभी निकले सैर पर।

मस्तीभरा याराना अपना,

हम सांझ ढले आ जाते घर।।


सबसे प्यारी दोस्ती हमारी,

इसे ताउम्र निभायेंगे। 

लाख आऐ तुफां जीवन में,

हम यूं ही साथ रहेंगे।।

तेरी,,,,,,


स्वरचित: मंजू बोहरा बिष्ट।

गाजियाबाद उत्तर प्रदेश 

नारी

मैं मानती हूं कि नारी की जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है,,, क्योंकि नारी हर क्षेत्र में अपना 100% दे रही है,,, सर्वप्रथम नारी को परिवार की रीढ़ माना जाता है,,,  घरेलू कामों से लेकर बच्चों के पालन पोषण की सभी जिम्मेदारियां नारी बखूबी निभाती है,,, आज की नारियां घर के साथ साथ घर के बाहर खेल, सत्ता, लेखनी, राष्ट्रीय- अंतर्राष्ट्रीय हर स्तर पर अपना शानदार प्रदर्शन कर रही हैं,,,, मैंने अपने ही देश में विविध क्षेत्रों में महिलाओं को सर्वोत्तम भूमिका अदा करते हुए देखा है, जैसे इंदिरा गांधी पहली और बेहतरीन प्रधानमंत्री बनी,,, कल्पना चावला पहली अंतरिक्ष यात्री बनी.,,, सुष्मिता सेन भारत की पहली ब्रह्मांड सुंदरी बनी,, रीता फारिया भारत की पहली विश्व सुंदरी बनी,,,  श्रीमती प्रतिभा पाटिल भारत की पहली महिला राष्ट्रपति बनी,,, और श्रीमती द्रोपति मुर्मू भारत के वर्तमान समय की राष्ट्रपति हैं,,, हमारे देश में आज डॉक्टर, इंजीनियर, पायलट हर क्षेत्र में नारी बेहतरीन तरीके से कार्यभार संभाल रही हैं।,,, और इतिहास में अपना नाम दर्ज कर रही हैं।,,, हमें भी अपनी बेटियों को खुला आसमान देना हैं,, मुझे विश्वास है,,, हौसलों के पंख लगाकर वो भी ऊंची उड़ान जरूर भरेंगे। 

स्वरचित मंजू बोहरा बिष्ट।

गाजियाबाद उत्तर प्रदेश।

धन्यवाद 🙏

क्षणिका: परिचय

मैं ना एक सागर हूं, 

ना ही कोई नदी हूं,

ना मैं एक झील हूं, 

और ना ही तलैया हूं,

मैं तो सिर्फ एक गागर का।

ठंडा - मीठा नीर हूं।।


स्वरचित: मंजू बोहरा बिष्ट।।

गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश।

मूलनिवासी: हल्द्वानी, नैनीताल। ‌‌



मैं भाव शून्य तो नहीं हूं। कविता।

दिन बीता, महीना बीता, बीत गए हैं साल।

बरसों से मैं ढूंढ रही हूं, अस्तित्व अपने ससुराल।।

रोज सुबह मैं उठकर, लेती हूं झाड़ू हाथ में।

करती हूं अपने घर का, हर कोना-कोना साफ मैं।।

सुबह- सुबह चाय की प्याली, देती हूं सबके हाथ में।

तोलिया, कपड़े, जूते- जुराबें, रखती हूं तैयार मैं।।

सरपट भागती कलेवा बनाती, बच्चों को जगाती हूं।

स्कूल- आफिस में ना हो देरी, अक्सर अपने हाथ जलाती हूं ।।

एक पैर पर होकर खड़ी, मैं सबकी फरमाइशें सुनती हूं।

सुबह से लेकर रात तक, मैं मशीन की भांति चलती हूं।।

ना पहनूं हूं मैं महंगी साड़ी, ना सोने का गहना।

छोटी सी तनख्वाह में, मुश्किल से चलता है महीना।।

कभी ना करती कोई शिक़ायत, बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हूं।

लक्ष्मी रूप धरकर हमेशा, पति देव की हिम्मत बढ़ाती हूं।।

हर पल कोशिश रहती है मेरी, अपना सौ प्रतिशत देती हूं।

लाख कोशिशों के बाद भी, मैं दिलों में क्यों बस नहीं पाती हूं।।

मैं जानती हूं वर्तमान के, कुछ बहू- बेटे नालायक हैं।

पर! मैंने तो स्वप्न में भी नहीं सोचा, फिर मुझसे क्यों शिकायत है।।

हाथों की पांचों अंगुलियों भी, एक समान नहीं होती हैं।

फिर क्यों कहते हो आजकल की बहुएं, संस्कारी नहीं होती हैं।।

आज की बहू मैं साक्षर- कर्मठ, हां.. मुझमें स्वाभिमान अथाह है।

कौन सी परीक्षा देकर बताऊं, मुझे भी दुनिया दारी की परवाह है।।

दर्द होता है मुझको भी बहुत, जब सुनती हूं मैं ताने।

अपने मन की पीड़ा को, मैं जाऊं कहां बताने।।

कभी कहता मन शांत अन्नपूर्णा, कभी कहता बन जा चंडी।

मां की बातें याद आते ही, पड़ जाती हूं मैं ठंडी।।

पास- पड़ोसी, फ़ोन को छोड़ो, मुझसे भी बातें किया करो।

मैं इस घर की बहू हूं, कभी मेरी सुध भी लिया करो।।

मात- पिता, भाई- बहन, मैं छोड़ आईं घर मां का।

बेटी मानों मैं नहीं कहती, बस दे दो दर्जा बहू का।।

अस्तित्व को मेरे ना नकारो, मैं भाव शून्य नहीं हूं।

आखिर कब तक सह पाऊंगी, मैं जीती- जागती इंसान हूं।।

मैं जीती- जागती एक इंसान हूं।।.....


स्वरचित: मंजू बोहरा बिष्ट।

गाजियाबाद, उत्तर प्रदेश।

मुक्ति: कविता।

क़ैद हूं इस पिंजड़े में कब से,

चाह रही उन्मुक्त हो जाऊं।

महबूब का निलय है अभ्र के पीछे,

उस तक कैसे मैं संदेशा भेजूं।।


मिलन की लौ मन में जगाकर,

उसकी बाट जोह रही हूं।

गुजरते लम्हे में स्मरण उसी का,

विश्वास की डोरी थामे खड़ी हूं।।


बीत रही निशा क्षण- क्षण,

बुझने लगे हैं चिराग सभी।

ब्रह्म बेला के सुअवसर पर,

साक्षात्कार होगा दोनों का तभी।।


वह आ रहा मेरा प्राणेश्वर,

स्वेत अश्वरथ में सवार।

रोम- रोम पुलकित हुआ,

बावरा मन करे श्रंगार।।


श्वेत अश्वरथ से मेरे प्रिय ने,

जब धरा पर पग धरा।

धड़कन ने बस इतना कहा,

धीरे- धीरे करीब आना जरा।।


चाहत बस इतनी है मेरी,

अलपक महबूब को निहार लूं।

समा जाऊं उसमें इस कदर,

ये सांसें उस पर वार दूं।‌।


तोड़कर पिंजड़ा स्वछंद होकर,

मेरे महबूब मैं तेरे संग चलुंगी।

माया- मोह के बंधन काटकर,

अभ्र के पार तेरे संग रहुंगी।।


स्वरचित: मंजू बोहरा बिष्ट,

गाजियाबाद उत्तर प्रदेश।