दिन बीता महीना बीता बीत गए हैं साल।
बरसों से वो ढूंढ रही है अपना अस्तित्व ससुराल।।
रोज़ सुबह उठकर, लेती है झाड़ू हाथ वो।
करती है अपने घर का, कोना कोना साफ वो।।
सुबह सुबह चाय की प्याली, देती है सबके हाथ में।
कभी तोलिया, कभी कपड़े- जूते, ला- लाकर रखती पास में।।
सरपट भागती कलेवा बनाती, मनुहार से बच्चे जगाती है।
स्कूल आफिस में ना हो देरी, अक़्सर अपने हाथ जलाती है।।
एक पैर पर खड़ी होकर, वो सबकी फरमाइशें सुनती है।
सुबह से लेकर रात तक, वो मशीन की भांति चलती है।।
ना पहने वो साड़ी महंगी, ना सोने का गहना।
जानती है! तनख्वाह कम है, मुश्किल से चलेगा महीना।।
कभी ना करती कोई शिक़ायत, बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती है।
लक्ष्मी रूप धरकर हमेशा, पति की हिम्मत बढ़ाती है।।
एक नई उम्मीद से रोज, करती दिन की शुरुआत वो।
हर पल कोशिश रहती उसकी, अपना सौ प्रतिशत देती वो।।
छोड़ आईं माता-पिता वो, भुला दिया बचपन अपना।
घर की खुशहाली के लिए, त्याग दिया अपना हर सपना।।
हां, आजकल के कुछ बहू- बेटे, सच में ही नालायक हैं।
पर! उसने तो स्वप्न में नहीं सोचा, फिर क्यों उससे शिकायत है।।
हाथों की पांचों अंगुलियां भी, एक समान नहीं होती।
फिर क्यों कहते हैं लोग आजकल की, बहुएं संस्कारी नहीं होती।।
दर्द होता है उसे भी बहुत, जब सुनती है वो ताने।
अपने मन की पीड़ा को वो, जाए कहां बताने।।
अस्तित्व उसका मत नकारो, वो भी तो एक इंसान है।
आखिर कब तक सह पायेगी, वो भाव शून्य तो नहीं है।।
पास- पड़ोस और फ़ोन को छोड़ो, आपस में बातें किया करो।
छोड़ो कैसी नाराजगी, सभी अपनों की सुधि लिया करो।।
आज की बहू है साक्षर कर्मठ और है वो स्वाभिमानी।
अपने हर पल का सदुपयोग करती नहीं है वो अभिमानी।।
स्वरचित मंजू बोहरा बिष्ट।
गाजियाबाद उत्तर प्रदेश
सर्वाधिकार सुरक्षित
प्रकाशित।
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