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कान्हा ज्यू को प्रथम पत्र

 हे मेरे कान्हा, 

कैसे हैं आप, मैं यह नहीं पूछूंगी। क्योंकि मुझे पता है आप जगत के पालनहार हैं, तो! बढ़िया ही होंगे। मुझे शरणागति चाहिये भगवन, पर कैसे ? 

मैं तो बचपन से ही क्रोध, लोभ और मद की मटकी अपने सिर पर रखकर फ़िर रही हूं😞,,, हाथों के सहारे बिना चलने पर यह मटकी नहीं गिरती, मैं जितना तेज भागती हूं यह मटकी उतनी ही स्थिरता से सिर पर टिकी रहती है,,,सच कहूं  कान्हा अब मेरी गर्दन थक गई है। इसलिए कह रही हूं🥺,,,अब यह बोझ मुझसे नहीं ढ़ोया जाता 😢,,, please एक बार आओ ना, आकर यह मटकी फोड़ दो। और मुझे एकदम खाली और हल्का कर दो।

स्वरचित

प्रार्थनीय

मंजू बिष्ट, गाजियाबाद


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आत्मकथा: जिंदगी 

5- 6 साल से अपनी बालकनी के पास गैस पाइप लाइन में मैंने एक जग बांधा हुआ है, मैं इस जग को सुबह से लेकर शाम तक कम-से-कम 8 या 9 बार पानी से भरती हूं। दिनभर मेरे दिमाग में यही बात रहती है अब तक तो पक्षियों ने पानी पी लिया होगा!,,जग खाली हो गया होगा!,,, गंदगी की वजह से अक्सर हम लोग कबूतरों को पसंद नहीं करते,,तो क्या हुआ यार,, हमारे जीवन में कई लोग ऐसे होते हैं जिन्हें हम पसन्द नहीं करते,, तो क्या हम उनके काम नहीं करते?? उनकी सेवा सुश्रुषा छोड़ देते हैं??,,, करते हैं ना।,,  इसलिए मैं तो कहुंगी बस यही सोचकर इन पक्षियों को भी दाना- पानी दिया करें,, पहले पशु-पक्षी प्रकृति पर आश्रित थे आज हम मानव पर आश्रित हैं।,,, सच कहूं,,,मेरा यह छोटा सा काम मुझे बहुत ही ज्यादा सुकून देता है।

स्वरचित: मंजू बोहरा बिष्ट 

गाजियाबाद उत्तर प्रदेश।

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